कोरबा / इधर हल-उधर बल
राजेन्द्र जायसवाल

 

राजेन्द्र जायसवाल

राजनीति में नेताओं के अपने-अपने रंग हैं। कोई बल में मशगूल तो कोई हल में मशगूल है। तीखे बयानों के लिए मशहूर जमीन से जुड़े काका इन दिनों अपने गांव के खेत में साफा बांधकर धान का रोपा लगाते सुर्खियां बटोर रहे हैं तो कद्दावर नेता भी जमीन से ही जुड़े मामलों में रायपुर से दिल्ली तक सुर्खियों में हैं। काका ने अनदेखी करने पर परिणाम भुगतने के तीखे बोल का तीर छोड़कर खलबली मचा दी और शांत चित्त से खेती-किसानी, धर्म-कर्म में जुट गए हैं। अब इधर काका का हल और उधर कद्दावरों का बल प्रदेश की राजनीति में क्या रंग लाता है?*

मुफ्त में बदनाम

बेचारा चावल चाहे वह प्राईवेट हो या सरकारी इन दिनों अपनी हकीकत से परे प्लास्टिक की पहचान लिए घूम रहा है। उसे लोगों ने गेंद बनाकर फिर उछालकर तो कहीं जलाकर परखा। पेट दर्द भले किसी और वजह से हो पर जब से प्लास्टिक चावल का शिगूफा उड़ा है, बेचारे निर्दोष चावल के मुफ्त में बदनाम होने के कारण लोग उसकी ओर से नजरें फेरने लगे कि सरकारी जांच ने लाज बचा ली है। अब यह तो मोटे-पतले, टूटे-फूटे चावल के किस्मत की बात है कि कहीं हिकारत तो कहीं इज्जत की नजरों से देखा जा रहा है।* 

दान की बछिया 

पुरानी कहावत है कि दान की बछिया का दांत नहीं गिना जाता। पर एक नेता को लगता है यह कहावत नहीं मालूम! अब एमएलए ने घोषणा कर दी है तो सरकारी प्रक्रिया में देर-सबेर हो जाती है। टेबल से फाइल सरकना उसके वजन पर भी निर्भर करता है। अब लेने वाला सख्श एमएलए के पीछे ही पड़ गया है जबकि उसे तो अपनी सरकार होने का लाभ उठाकर अपना जुगाड़ पहले फिट करना चाहिए, पर जनाब इशारों की राजनीति में पुरानी कहावत भूल बैठे हैं।

हाथी के दांत

सरकारी तंत्र में योजनाओं का क्रियान्वयन हाथी के दांत की कहावत चरितार्थ कर रहे हैं। खाने का और-दिखाने का और की तरह फील्ड में काम कुछ नजर आता है तो रिकार्ड में उसे पूरा बताया जाता है। अब ठेका व कमीशन के फेर में सरकारी तंत्र को इतना भी गैर जिम्मेदार नहीं होना चाहिए कि जो दिख रहा है उसे भी अनदेखा कर दें। आखिर गरीबों व पीडितों की हाय भी देर-सबेर लग ही जाती है।

अर्थी, घंटी और न जाने क्या-क्या

विश्वविद्यालय के परीक्षा परिणामों से क्षुब्ध छात्र नेताओं के विरोध के तरीके काफी अलग-थलग होते जा रहे हैं। कहीं अर्थी निकालकर विरोध तो कभी घंटी बजाकर नींद से जगाने का प्रदर्शन अपने आप में अनोखा तो कहा जा सकता है लेकिन विरोध की ऐसी संस्कृति और तरीका कितना जायज हो सकता है, यह तो छात्र नेताओं के लिए आत्ममंथन का विषय है। विरोध के तरीकों से अब तो विचार भी उठने लगे हैं कि ये पाश्चात्य तरीके से विरोध का अनुशरण करना न शुरू कर दें वरना अर्थी, घंटी के बाद और न जाने क्या-क्या तरीका देखने को मिलेगा? *

अंत में

निगम के अधिकारियों और ठेकेदारों की मनमानी से परेशान पार्षदों की एकजुटता ने आखिरकार रंग ला ही दिया। विशेष सम्मिलन में सोमवार को साकेत का गलियारा चहल-पहल से भरा होगा तो बंद कमरे में विरोध के स्वर गूंजेंगे। वैसे भी जनप्रतिनिधियों को जनता की काफी खरी-खोटी सुननी पड़ रही है। अब अपनी भड़ास ये जनप्रतिनिधि कमरे में किस प्रकार निकालेंगे और इसका निचोड़ किस रूप में जनता और विकास कार्यों के लिए सामने आयेगा, यह वक्ती तौर पर देखने वाली बात होगी।