मध्यप्रदेश में भाजपा और कांग्रेस एक ही नाव पर सवार हैं। दोनों ही दलों के नेतृत्व नोंकदार सवालों का सामना कर रहे हैं। भाजपा में चुभने वाले प्रश्नों की कम संख्या होने से अनुशासनहीनता और कांग्रेस में इसे आंतरिक लोकतंत्र कहा जाता है। बशर्ते की सवाल गांधी परिवार को खरोंच न लगाते हों। सियासत में जिस चेहरे में जिताने का दम है तब तक वह लीडर। इसके चलते बीस बरस पहले कांग्रेस में दिग्विजय सिंह लीडर थे तो 2003 में उमा भारती। इसके बाद 2008 और 2013 में यह तमगा शिवराज सिंह चौहान की छाती पर सजा है। मगर भाजपा नेताओं में 2018 का चुनाव जीतने को लेकर जो संशय है और इसके पीछे सवाल भी। ये सवाल समझा ही जाता है कि शाह की शह पर कैलाश विजयवर्गीय से लेकर हर कोई पूछने लगा है। इनमें भ्रष्टाचार, प्रशासनिक अक्षमता, बेलगाम नौकरशाही, सरकार की दासी बना संगठन प्रमुख हैं। सो ये सवाल सत्ता-संगठन के दोनों चौहानों (शिवराज और नंदूभैया) पर हैं। ऐसे में लाख खुशामद के बाद भी मोदी सरकार की बेरुखी शिव को परेशान कर रही है। भोपाल में पिछले दिनों देश के इकलौते शौर्य स्मारक के शुभारंभ पर आए प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी ने सर्जिकर स्ट्राइक पर तो अपनी चुप्पी को सेना के प्रहार से जोड़ा लेकिन यह अवसर देने वाले राज्य के खाते में कुछ नहीं डाला। ऐसे में शिवराज की हालत कुछ इस तरह की हो रही है...
उलझी हुई निगाहों से मुझे देखता रहा
आइने में खड़ा शख्स परेशान था बहुत।
मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री अब तक सूबे की आठ दफे सैर (माफी के साथ) की है पर जनता के हित में कोई पैकेज नहीं दिया और न दिल खुश करने वाली कोई बात कही। जबकि यहां मतदाताओं ने दिल्ली में मोदी की सरकार बने इसके लिए राज्य की 29 में से 27 लोकसभा सीटें जिताकर दी थीं (झाबुआ हारने के बाद 26)। भाजपा का लगातार साथ देने वाले इस राज्य की माली हालत यूपीए सरकार के शासनकाल से भी खराब है। ऐसा लग रहा है मानो भाजपा की सरकार बनाने की सजा दी जा रही है। मोदी ने मांगने पर भी मदद नहीं की। मसला चाहे सूखे का रहा हो या अतिवृष्टि का। किसान आत्महत्या कर रहा हो या सरकार को वेतन बांटने के लाले पड़ रहे हों। राज्य का खजाना खाली है और इक्विटी बेच-बेचकर किसी तरह काम चलाया जा रहा है। बारिश से बर्बाद हुई सड़कों को चलने लायक बनाने के लिए 6 हजार करोड़ की जरूरत है। बच्चे कुपोषण और महिलाएं खून की कमी की शिकार हैं। स्कूल, कॉलेज, अस्पताल बदहाल हैं। न तो पढ़ाई हो रही है और न उसकी कोशिशें। समस्याएं तो ढेरों हैं। प्रधानमंत्री से उम्मीद थी कि मौका भले ही शौर्य स्मारक के शुभारंभ का है मगर मध्यप्रदेश को राहत देने के लिए कोई बड़ी घोषणा करने के लिए बड़ा दिल दिखाते, लेकिन ऐसा हो न सका। कर्ज में डूबा राज्य अपने बजट के बराबर कर्ज लेने के आंकड़े से थोड़ी दूर है। इस पर हड़ताल की धमकी के कारण सातवां वेतनमान दिवाली बोनस ये सरकार पर भारी पड़ रहे हैं। किसान बेचारा चुप है सो मेहनत और अच्छी पैदावार के बाद भी लागत मूल्य न मिलने से बुरे दिनों को आता देख रहा है। दिल्ली में यूपीए की सरकार के समय मुख्यमंत्री समेत सांसद, विधायक धरने की धमकी दे केन्द्र से मदद ले आते थे। लेकिन मोदी सरकार में शांति रखना, अनुशासन या कुर्सी बचाए रखने की विवशता है। शायद इसे ही कहते हैं ‘बड़ा मारे और रोने भी न दे।’ इस लाचारी ने मानो राज्य के बुरे दिन ला दिए हैं।
ग्यारह साल से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को इस समय चौतरफा घेरने की तैयारी है। राष्ट्रीय महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय भ्रष्टाचार, निरंकुश नौकरशाही और संगठन में असंतोष का त्रिशूल चला रहे हैं। संघ परिवार ने भी बालाघाट के बैहर में अपने स्वयंसेवक की पुलिस पिटाई के बाद सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। प्रदेश प्रभारी विनय सहस्रबुद्धे और प्रदेश संगठन महामंत्री सुहास भगत पहले से ही नाखुश हैं। राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा भी मौके की तलाश में मुद्दों पर धार किए हुए उचित अवसर की प्रतीक्षा में हैं। केन्द्रीय मंत्री उमा भारती ने यह कहकर पहले ही सनसनी फैला दी है कि सरकार उन्होंने बनाई थी मजे दूसरे ले रहे हैं और सजा उन्हें मिल रही है। यह बात उन्होंने दिग्विजय सिंह द्वारा लगाए गए मानहानि के मुकदमे के चलते पेशी पर आने के दौरान भोपाल में कही। उमा भारती ने 2003 में दिग्विजय सिंह पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे। इन आरोपों के चलते सुन्दरलाल पटवा और विक्रम वर्मा ने दिग्विजय सिंह को ईमानदार बता मुकदमे से मुक्त हो गए। दूसरी तरफ शिव के शुभचिन्तक केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर खामोशी ओढ़े हैं। इक्का-दुक्का केन्द्रीय मंत्री मुख्यमंत्री बनने का सपना भी देख सुनहरे पलों में खोए-खोए से हैं। इन्हें अपने मोदी कनेक्शन पर भरोसा है। मगर पहले दिल्ली और बिहार हारने के बाद और यूपी चुनाव तक अटका हुआ है। यूपी भाजपा जीती तो सीएम के दावेदार नया सूट सिलवा लेंगे नहीं तो मामला फिर गुजरात चुनाव तक लटकेगा।
बहरहाल, कांग्रेस का प्रदेश नेतृत्व भी आए दिन बदलाव और बड़े नेताओं के दबाव में दबा जा रहा है। कभी ज्योतिरादित्य सिंधिया तो कभी कमलनाथ को कमान सौंपने की अफवाहें इधर पंख लगाए उड़ती हैं उधर अरुण यादव समर्थक बेचैन हो जाते हैं। पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुरेश पचौरी अलबत्ता प्रदेश नेतृत्व और पदाधिकारियों की गुड लिस्ट में बने हुए हैं। एक बैठक में पचौरी ने यादव और उनकी टीम की खूब तारीफ की थी। बदलाव की अफवाहें जब तक सच न हो जाएं तब तक राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह दूर से इसका आनंद ले रहे हैं। जबकि प्रदेश कांग्रेस में सुई भी गिरे तो उसकी आवाज उन्हें सुनाई पड़ती है। हकीकत तो यह है कि प्रदेश कांग्रेस का मसला आलाकमान के एजेंडे में नहीं है। अभी तो वह यूपी चुनाव पर फोकस किए हुए हैं । फिलहाल तो प्रदेश सरकार और कांग्रेस का नेतृत्व आईने में खड़े परेशान शख्स की तरह हैं।