अनुराग उपाध्याय
बेहतर काम जहाँ भी हो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। चुनाव आयोग समय-समय पर बेहतर फैसले करता है , जिससे उसकी साख आम लोगों में हमेशा राजनैतिक दलों से ज्यादा मायने रखती है। अब चुनाव आयोग द्वारा 255 राजनीतिक दलों को अपंजीकृत करने के साहसिक कदम के सकारात्मक परिणाम निकलने की उम्मीद की जानी चाहिए। काले धन को सफेद करने के गोरखधंधे की आशंका के बीच उठाये गये इस कदम से हमारी राजनीतिक व्यवस्था भी बेनकाब हुई है।
ये राजनीतिक दल जिस तरह बनाये गये, उससे यह अनुमान भी सहज हो जाता है कि ये किसलिए बनाये गये और क्या काम करते होंगे। ध्यान रहे कि 21 अप्रैल, 2016 तक चुनाव आयोग में 1931 राजनीतिक दल पंजीकृत थे, लेकिन बड़ी संख्या में ऐसे दल भी हैं, जिन्होंने वर्ष 2005 से 2015 के बीच कोई भी विधानसभा या लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा। यहां यह भी जानना जरूरी है कि पंजीकृत के अलावा चुनाव आयोग से मान्यता प्राप्त दल भी होते हैं। कुछ दलों को राष्ट्रीय दल की मान्यता प्राप्त होती है, तो कुछ को क्षेत्रीय दल की। जिन 255 राजनीतिक दलों को चुनाव आयोग ने संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत प्राप्त अधिकारों का उपयोग करते हुए अपंजीकृत किया है, वे इस अवधि में कोई चुनाव नहीं लड़े। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि अगर चुनाव ही नहीं लड़ना तो फिर राजनीतिक दल का गठन ही क्यों? इसीलिए इन और ऐसे ही अन्य दलों की मंशा और भूमिका संदेह के घेरे में है,क्योंकि पंजीकृत राजनीतिक दलों को, रौब-दौब के अलावा, आयकर समेत कई तरह की छूट हासिल होती हैं। हालांकि चुनाव आयोग समय-समय पर राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली को पारदर्शी बनाने की जरूरत पर जोर देता रहा है, लेकिन उसके वांछित परिणाम नहीं निकले। यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि गहरे मतभेदों और विरोधों के बावजूद खुद को जिम्मेदारी-जवाबदेही से बचाने के लिए सभी राजनीतिक दल एकजुट हो जाते हैं। इसी एकजुटता के चलते चुनाव सुधार अरसे से लंबित हैं।
यह कहना गलत नहीं होगा कि ऐसे कागजी राजनीतिक दलों की ओर ध्यान जाने का एक बड़ा कारण नोटबंदी और उसके बाद काले धन को सफेद करवाने के संभावित रास्तों का खुलासा ही रहा है। टीवी न्यूज चैनलों के स्टिंग ऑपरेशन से भी यह खुलासा हुआ कि खुद को प्राप्त आयकर समेत तमाम तरह की कानूनी छूट का दुरुपयोग करते हुए राजनीतिक दल किस तरह कमीशन लेकर काले धन को सफेद करने के लिए सौदेबाजी कर रहे हैं। स्टिंग ऑपरेशन से जब मान्यताप्राप्त राजनीतिक दल ही बेनकाब हो गये, तब हजारों की संख्या में पंजीकृत दलों की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक ही था।
चुनाव आयोग ने 255 राजनीतिक दलों को अपंजीकृत करते हुए केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) को इनके वित्तीय विवरण की जांच के लिए भी कहा है। बेशक सच जांच के बाद ही सामने आ पायेगा और तभी जरूरी कार्रवाई भी होगी, लेकिन इन दलों के गठन का तरीका अपने आप में इन्हें संदेहास्पद बना देता है। क्या यह फर्जीवाड़े का ही प्रमाण नहीं है कि इनमें से एक राजनीतिक दल तो उस पते पर पंजीकृत है, जो अब केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह का सरकारी आवास है? सर्वाधिक 52 राजनीतिक दल दिल्ली के पते पर पंजीकृत हैं तो 41 उत्तर प्रदेश के पते पर। उसके बाद अन्य राज्यों का नंबर आता है। फर्जीवाड़े के जरिये गठित ज्यादातर राजनीतिक दल अपनी भूमिका में भी ईमानदार नजर नहीं आते। किसी भी संसदीय प्रणाली में राजनीतिक दलों की भूमिका बेहद अहम होती है। अगर राजनीतिक दल ही तरह-तरह के धंधेबाजों की दुकान बन कर रह जायेंगे, तब वह संसदीय प्रणाली कैसे पाक-साफ और जिम्मेदार-जवाबदेह रह पायेगी? समय का तकाजा है कि खुद अपनी साख की खातिर भी हमारी राजनीति को चुनाव सुधारों का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।