मेनन की विदाई के मायने
राकेश अग्निहोत्रीअरविन्द मेनन यानी शिवराज का भरोसेमंद वोे चेहरा जिसके खाते में उपलब्धियों की भरमार और ऐसे में यदि उनकी रवानगी का फरमान दिल्ली से राष्ट्रीय महासचिव अरुण सिंह द्वारा दो लाइन की चिट्ठी के साथ उस वक्त जारी किया जाता है जब कुछ दिन बाद पीएम मोदी मध्यप्रदेश के दौरे पर आ रहे हैं तो फिर इसकी वजह को लेकर सवाल खड़े होना जितना लाजमी है उतना ही मायने को लेकर एक नई बहस छिड़ना भी तय है। बीजेपी कोर ग्रुप की बैठक के बाद इस चिट्ठी का मजमून ये संकेत देता है कि मेनन को लेकर फैसला बहुत पहले लिया जा चुका था और जब इसे लागू नहीं किया गया तो फिर हस्तक्षेप अमित शाह ने किया। सवाल मेनन की विदाई के साथ खड़ा होता है कि आखिर उन्हें हटाया गया तो क्यों? क्या किसी गंभीर शिकायत या फिर सुहास भगत की नई इंट्री के मद्देनजर मजबूरी में मध्यप्रदेश से बाहर किया गया...या फिर इस मजबूत कड़ी को कमजोर साबित करने के पीछे कोई और स्िक्रप्ट आने वाले समय में सामने लाई जाएगी..प्रदेश कार्यसमिति की बैठक के बाद और मिशन सिंहस्थ के पूरा हो जाने के पहले यदि मेनन पर ये बड़ा फैसला सामने लाया गया तो ये क्या संघ का एजेंडा है और इसमें बीजेपी का हस्तक्षेप नहीं चला? चाहे फिर वो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ही क्यों न हों जो पिछले दिनों दिल्ली में शीर्ष नेताओं से मिल चुके तो उनका वैचारिक महाकुंभ के निमंत्रण के बहाने ही सही नागपुर जाना चर्चा का विषय बना। ये सच है कि चौहान कभी नहीं चाहेंगे कि मेनन चुनाव से पहले उनका साथ छोड़ें लेकिन सच सामने है तो फिर नया सवाल ये खड़ा होता है कि 10 साल के मुख्यमंत्री के तौर पर कई नए कीर्तिमान बना चुके शिवराज ने क्या अपने वीटो पॉवर का इस्तेमाल नहीं किया या फिर संघ की सोच को बखूबी समझते हुए उन्होंने अपने हाथ पीछे खींचना मुनासिब समझा। क्या शिवराज के साथ नरेंद्र तोमर ने भी इस मामले में अपने प्रभाव का इस्तेमाल नहीं किया? क्या ये शिवराज से दूरी बनाकर चल रहे उन नेताओं की जीत है जो दिल्ली में रहकर मेनन के खिलाफ पहले से ही मोर्चा खोल चुके थे। यक्ष प्रश्न ये है कि क्या इस फैसले में संघ या फिर शाह ने मोदी को विश्वास में लेकर विशेष दिलचस्पी ली? क्या इसमें प्रदेश के प्रभारी विनय सहस्रबुद्धे की भी अहम भूमिका रही जो मध्यप्रदेश में अपनी उपेक्षा से खासे चर्चा में रहे। क्या सहस्रबुद्धे ने शाह के एजेंडे को आगे बढ़ाया है या फिर संघ के मोहन भागवत और पीएम नरेंद्र मोदी ने ये स्िक्रप्ट खुद लिखी थी, इस पर गौर करना होगा। सवाल ये खड़ा होता है कि क्या इससे बीजेपी का संगठन कमजोर या मजबूत होगा या फिर सत्ता-संगठन का तालमेल भी प्रभावित होगा? संघ के इस फैसले में संदेश क्या शिवराज के िलए भी छुपा है? िजनके बारे में कहा जाता है कि हाईकमान फ्रीहैंड दे चुका है फिर भी कैबिनेट विस्तार नहीं हो पा रहा है। क्या संघ की तीसरी आंख बनकर बीजेपी में इंट्री कर रहे सुहास भगत को लाने के लिए मेनन को हटाया गया या फिर उनकी रवानगी सुनिश्चित करने के लिए भगत आ रहे, ये बहस का मुद्दा बन सकता है लेकिन सभी जानते हैं कि शिवराज इस फैसले से कमजोर भले ही न हों लेकिन मजबूत भी महसूस नहीं कर रहे होंगे। बड़ा सवाल ये है कि क्या कैबिनेट और संगठन का विस्तार मेनन की नई भूमिका को लेकर रुका हुआ था? जिसका रास्ता अब साफ हो जाएगा या फिर बात कुछ और भी है। सवालों की इस फेहरिस्त में कुछ अहम सवाल जरूर खड़े होते हैं जिन पर शिवराज को न सिर्फ समय रहते गौर करना होगा बल्कि सतर्क और सजग रहकर ये समझना होगा कि आखिर सब कुछ ठीक-ठाक था तो ये सि्थति क्यों बनी, जो उनसे मेनन को छीनकर ये संदेश दिया गया कि संगठन में आपको फ्री हैंड नहीं दिया जाएगा चाहे आप सरकार अपनी मर्जी से चलाएं?संघ का एजेंडाआखिर लंबे इंतजार के बाद संघ ने नागौर बैठक के अपने फैसलों में शामिल महत्वपूर्ण बदलाव का संदेश मध्यप्रदेश को दे दिया। 11 मार्च से नागौर में शुरू हुए मंथन के बाद भले ही अमित शाह की नई टीम का सभी को इंतजार है लेकिन मध्यप्रदेश में रुकी पड़ी नंदूभैया की टीम के लिए ग्रीन सिग्नल संगठन महामंत्री अरविन्द मेनन की विदाई के साथ सामने आ चुका है। पुराने टीम के साथ प्रदेश कार्यकारिणी की हुई बैठक में शायद ही किसी ने सोचा होगा कि सिंहस्थ के पहले मेनन की नई भूमिका तय कर उनकी रवानगी सुनिश्चित कर दी जाएगी। क्षेत्र प्रचारक अरुण जैन ने सोमवार को सामाजिक समरसता के लिए बुलाई गई संघ प्रचारकों की बैठक में सुहास भगत को बीजेपी के नए संगठन महामंत्री बनाए जाने का फैसला जब सुनाया गया तो उससे पहले अमित शाह के निर्णय को राष्ट्रीय महामंत्री अरुण सिंह की नंदकुमार सिंह चौहान को लिखी चिट्ठी ने पहले ही सस्पेंस खत्म कर इसकी लिखित जानकारी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और अरविन्द मेनन को भेज दी थी। संघ ने भले ही राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी में बदलाव को लेकर अभी तक कोई बड़ा संदेश नहीं दिया है लेकिन ये भी सच है कि 5 राज्यों के प्रदेश अध्यक्षों की नियुक्ति उसने कर दी है। संघ के सामने मेनन के विकल्प के तौर पर कुछ बाहरी नाम भी थे लेकिन अंतिम फैसला मालवा प्रांत के पराग अभ्यंकर और मध्य भारत के प्रचारक सुहास भगत के बीच लिया जाना था जिसमें सहमति भगत के नाम पर बनाई जा चुकी थी जिनकी जगह सह प्रांत प्रचारक अशोक पौरवाल को प्रांत प्रचारक बनाया गया। संघ के लिए दूसरे राज्यों के मुकाबले मध्यप्रदेश मायने रखता है जहां बीजेपी की 12 साल से सरकार है लेकिन बीजेपी के संगठन पर सत्ता के सामने नतमस्तक होने के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। संघ के अपने एजेंडे को लेकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से भले ही शिकायत न रही हो लेकिन संगठन की साख पर सवाल ये कहकर खड़े किए गए कि प्रबंधन के युग में कैडर कमजोर तो विचारधारा से कार्यकर्ता भटककर जोड़-तोड़ की राजनीति के लिए गणेश परिक्रमा में ज्यादा रुचि लेने लगा है। शिव-नंदू चौकन्नेअरविन्द मेनन की विदाई से सबसे बड़ा झटका शिवराज सिंह चौहान को लगा होगा ऐसा मानने वाले कम नहीं हैं, क्योंकि पिछले चुनाव में बीजेपी की सत्ता में वापसी में प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर नरेंद्र तोमर से संगठन महामंत्री अरविन्द मेनन ने कम भूमिका नहीं िनभाई है। शिवराज के साथ अध्यक्ष बदलते रहे तो माखन सिंह और उससे पहले कप्तान सिंह को भी ये कुर्सी छोड़ना पड़ी थी। सह संगठन महामंत्री के तौर पर अरविन्द मेनन से सीनियर होने के बाद भी भगवतशरण माथुर को भी पहले ही प्रदेश की रोजमर्रा की राजनीति से दूर कर दिल्ली भेज दिया गया था। नंदकुमार सिंह चौहान जरूर बड़ी राहत महसूस कर रहे होेंगे कि अब संगठन में उनकी पकड़ मजबूर होगी क्योंकि मेनन का रुतबा और बढ़ता रसूख किसी से छुपा नहीं था। शिवराज सिंह चौहान के जिस वीटो पॉवर के चलते अमित शाह को भरोसे में लेकर नंदूभैया को नई पारी खेलने का मौका पर्दे के पीछे संघ और मोदी ने दिया था शायद उस वक्त ये तय हो गया था कि यदि संघ ने मेनन की नई भूमिका की स्िक्रप्ट लिखी थी तो चौहान का हस्तक्षेप शायद काम न करे। दो चौहान की इस जोड़ी अब मेनन की कमी बीजेपी को कई मोर्चों पर महसूस होगी तो इन दोनों नेताओं के लिए नए सिरे से सुहास भगत से समन्वय बनाना किसी चुनौती से कम नहीं होगा। भगत को भरोसे में लेकर अब जो बड़े फैसले बीजेपी को लेना है उसमें शिवराज के सामने यदि कैबिनेट विस्तार तो नंदूभैया के सामने पदाधिकारियों की नई टीम के साथ कार्यकारिणी का विस्तार सबे ऊपर होगा। इसके बाद ही मिशन-2018 के लिए अब बीजेपी को नए सिरे से शंखनाद करना होगा। देखना दिलचस्प होगा कि मेनन की जमावट के बीच भगत अपनी लाइन या यूं कहें कि संघ के एजेंडे को बीजेपी में कैसे बढ़ाते हैं।मेनन प्लस-माइनसअरविन्द मेनन की विदाई के साथ यदि उनकी उपलब्धियों का आंकलन जरूरी है तो उस वजह को भी लोग तलाशेंगे कि आखिर उन्हें जाना क्यों पड़ा? कहीं ये प्रमोशन की आड़ में डिमोशन तो नहीं? जिन्हें फिलहाल 22 प्रकल्पों की जिम्मेदारी सौंपी गई और अगले चरण में यूपी या दक्षिण के राज्य में उनकी सेवाएं स्थायी की जाएं। संघ के प्रचारक न रहते हुए बीजेपी ने संगठन मंत्री के तौर पर इंदौर ग्रामीण-शहर, उज्जैन, फिर संभाग के बाद महाकौशल के संगठन महामंत्री से आगे बढ़ते हुए संगठन महामंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद संघ द्वारा उन्हें प्रचारक घोषित किया जाना उनकी मजबूत प्रबंधन क्षमता का यदि जीता जागता उदाहरण है तो ये कहने में कोई गुरेज नहीं कि इस मृदु भाषी दक्षिण भारतीय, मेहनती नेता ने कम समय में बीजेपी में पहचान और संघ में अपना दखल बढ़ाया वो दूसरों के लिए किसी मिसाल से कम नहीं लेकिन ये भी सच है कि सरकार में रहते बीजेपी भले ही सत्ता बचाने में सफल रही लेकिन कैडर कमजोर तो सिद्धांत और विचारधारा से समझौता भी बीजेपी ने खूब किए। चाहे फिर वो दूसरे दलों के नेताओं का आयात करना हो या फिर इससे मूल विचारधारा और निष्ठावान कार्यकर्ता की बढ़ती नाराजगी ही क्यों न हो, मेनन के रहते बदलाव के इस दौर में नए प्रयोग खूब देखने को मिले। खुद को बेहतर प्रचारक से ज्यादा मैनेजर साबित कर शिवराज के हर टास्क को अमलीजामा पहनाकर अरविन्द भले ही मुख्यमंत्री के भरोसेमंद बनकर उभरे लेकिन संगठन की पहचान पर सवाल भी खड़े होते रहे हैं। मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष की तिकड़ी में संगठन महामंत्री की मजबूत कड़ी साबित होते रहे मेनन की विदाई से बीजेपी में खुश होने वाले भी खूब मिल जाएंगे जिनका मानना है कि अनुशासन का डंडा दिखाकर संगठन ने अपने फैसले मंडल से लेकर जिस तरह प्रदेश में थोपे उससे कार्यकर्ताओं का एक बड़ा वर्ग अपने आपको ठगा सा महसूस करने लगा था। पिछले दिनों करीब एक दर्जन पूर्णकालिकों को हटाए जाने के बाद ये बड़ा फैसला मेनन के जाने के साथ सामने आया है। समिधा और दीनदयाल परिसर के बीच की इस अहम कड़ी की तुलना यदि छत्तीसगढ़ के संगठन महामंत्री की होगी जिन्हें हाल ही में लाल बत्ती से नवाजा गया तो फिर मेनन की नई भूमिका पर बहस छिड़ सकती है। सवाल खड़ा होना लाजमी है कि िजस मेनन ने शिवराज को भरोसे में लेकर लाल बत्तियां बांटीं और मंत्री बनवाए क्या वो खुद बीजेपी की सक्रिय राजनीति में अपनी जगह सुनिश्चित करने में रुचि लेंगे या फिर संघ के एजेंडे को राष्ट्रीय स्तर पर आगे बढ़ाएंगे। सवाल ये भी है कि क्या मेनन को भविष्य में राज्यसभा भेजा जा सकता है या मिशन-2018 विधानसभा चुनाव के दौरान फिर उनकी सेवाएं खासतौर से प्रबंधन क्षमता को ध्यान में रखते मध्यप्रदेश के लिए ली जाएंगी जैसा कि पूर्व में कप्तान सिंह, माखन सिंह के साथ हुआ। कप्तान सिंह राज्यों के प्रभारी बनकर अपनी काबिलियत की दम पर राज्यपाल बन चुके हैं तो हाल ही में माखन सिंह को सिंहस्थ की केंद्रीय समिति का अध्यक्ष बनाकर लालबत्ती से नवाजा गया जबकि भगवतशरण माथुर जैसे नेता को आज भी नई भूमिका का इंतजार है। यहां ध्यान रखना होगा कि अरविन्द मेनन के रामलाल से लेकर संजय जोशी से यदि व्यक्तिगत संबंध अच्छे रहे तो प्रभात झा के मुकाबले अध्यक्ष नरेंद्र तोमर से उनका समन्वय बेहतर रहा। भगत पर भरोसासुहास भगत जिनके संगठन महामंत्री के नाम का ऐलान संघ ने भले ही प्रचारकों के बीच कर दिया लेकिन बीजेपी में उनकी नई जिम्मेदारी के लिए सभी को नंदूभैया की नई टीम का इंतजार है। कट्टर संघी, अनुशासन प्रिय, लो प्रोफाइल लेकिन फैसलों में एग्रेसिव नजर आने वाले सुहास भगत के बारे में कहा जाता है कि चाटुकारिता उन्हें बिलकुल पसंद नहीं लेकिन अब उन्हें काम बीजेपी के उन कार्यकर्ताओं से कराना है जो सत्ता के मद में या तो चूर हैं या फिर अपनी उपेक्षा से नाराज। मोहन भागवत को जब सर संघ चालक का दायित्व सौंपा गया था उस समय सुहास को मध्य भारत का प्रांत प्रचारक बनाया गया था। अब जब पीढ़ी परिवर्तन के इस दौर में जब संघ अपना गणवेश बदलने के ऐलान के साथ खुद को वर्तमान परिदृश्य में ढाल रहा है तब भगत बीजेपी को विचारधारा और सिद्धांत की लाइन पर आगे ले जाएंगे। प्रांत प्रचारक के तौर पर बीजेपी की इस की-पोस्ट पर कप्तान सिंह ने जब कमान संभाली थी चुनौती उनके सामने कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेंकना और उसके बाद उमा भारती को बीजेपी से निकाले जाने के समय संगठन की ताकत पर बीजेपी को एकजुट रखना थी। तो प्रांत प्रचारक से मुक्त हुए सुहास भगत के सामने चुनौती सत्ता में रहते बीजेपी को एक बार फिर सरकार में लाना यानी जो काम अरविन्द मेनन और माखन सिंह ने संगठन महामंत्री रहते किया उसे पूरा करने के साथ बीजेपी संगठन को मूल भावना के साथ सिद्धांत की कसौटी पर खरा उतरकर दिखाना बड़ी चुनौती होगी। क्षेत्र प्रचारक अरुण जैन के मार्फत संघ के एजेंडे में शामिल कई मुद्दों पर सुहास को बीजेपी के अंदर कड़े फैसले करवाना होंगे तो अन्य राज्यों के मुकाबले मध्यप्रदेश की पहचान कायम रखने के लिए भी उन्हें सख्त फैसले लेना होंगे। कैबिनेट का विस्तार और बीजेपी कार्यकारिणी के गठन में उनकी सोच और दखल देखने को मिलेगी तो विधानसभा चुनाव से पहले बड़े नेता के तौर पर उभर चुके सीएम शिवराज सिंह से उन्हें अपना सामंजस्य अब नए सिरे से बनाना होगा। संघ के स्वयंसेवकों और प्रचारकों के बीच से बाहर निकलकर भगत को बदलती भाजपा के उन कार्यकर्ताओं को भरोसे में लेना होगा जिनमें कई ऐसे होंगे जिन्होंने धन-बल के दम पर या फिर गणेश परिक्रमा कर पद हासिल किया है।[नया इण्डिया से साभार ]