सुशासन के लिए अराजकता का दौर
सुरेश शर्मा देश इन दिनों एक ऐसी अवस्था से गुजर रहा है जिसमें सबकुछ बिखरा हुआ सा है। जहां कोई किसी से कुछ भी सवाल पूछ रहा है। पूछे गए सवाल ऐसे लगते हैं मानों हर कोई ये ही सवाल तो पूछना चाह रहा था। न कोई ऐसा आकर्षक चेहरा सामने हैं जैसे जयप्रकाश जी का था, न कोई ऐसा युगपर्वतक सामने आया है कि हम इन्हीं मुद्दों को सामने लेकर चलते हैं तभी देश कि दिशा बदल जाएगी। इसी लिए सब बिखरा हुआ दिख रहा है यूं भी कह सकते हैं कि सुशासन के लिए देश में अराजकता का दौर चल रहा है। राजनीतिक पार्टियां कुछ कर नहीं पा रही हैं और पुलिस प्रशासन यह मान करके कि यह भी तो देश की व्यवस्था को सुधारने का एक हिस्सा हो सकता है इसलिए वह उसे होने दे रही है। वह बाबा रामदेव जैसा दमन करने के मूढ में नहीं है। तो फिर वही बात सामने आती है कि अव्यवस्थाओं के बीच से देश सुशासन के लिए संघर्ष कर रहा है। अन्ना हजारे का तिरंगा अब भी लोगों के हाथों में थमा हुआ है लेकिन चिन्तित करने वाली बात यह है कि भ्रष्टाचार को रोकने के लिए युवाओं ने जो तिरंगा थामा था वह तो हाथों में है लेकिन भ्रष्टाचार के दागियों की संख्या एक के बाद एक सामने आ रही है। हर महकमें में शहद फैला हुआ है हर कोई चाटने में लगा है, जिस देश में 42 प्रतिशत कुपोषित बच्चे हों और इतने के करीब गरीबी की रेखा का सम्मान बढ़ा रहे हों उस देश में उपदेशों की घुंटी उनके हिस्से आ रही हो तो इस प्रकार की बगावत की संभावना की ही जा सकती है। आज के युग में किसी को शूरवीर बनने के लिए राणा सांगा और पृथ्वीराज चौहान जैसी भुजाओं की जरूरत नहीं है। यह युग तलवार उठाकर किसी की गर्दन काटने का नहीं बल्कि सूचना के अधिकार के तहत जानकारी निकाल कर गर्दन नापने का है। जिस आरटीआई को कांग्रेस तथा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मान कर देश को बताते यह नहीं थकते थे कि उन्होंने भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए ऐसा हथियार देश के सामने दे दिया है आज उसी के बारे में प्रधानमंत्री को कहना पड़ रहा है कि इसका दुरूपयोग हो रहा है। याने भगत सिंह किसी और के घर पैदा हो। जब सरकार के मंत्रियों के कारनामे सामने आने लगे तो यह कानून बुरा लगने लग गया है। आखिर यह स्थिति बनी क्यों? राजनीतिक दलों में भ्रष्टाचार को लेकर ऐका हो गया। कांग्रेस इसकी सरगना है तो भाजपा नम्बर दो और कभी नम्बर एक होने की लड़ाई लड़ रही है। जिसकी पूंछ उठाओ सभी एक समान नजर आते हैं। अधिकारियों की बात तो छोड़ ही दो वे तो भ्रष्टाचार के जनक हैं। अदना सा कर्मचारी करोड़ों उगल रहा है तो बड़ों का हिसाब आज तक सरकार और जांच करने वाले विभाग नहीं कर पा रहे हैं। आपके जहन में भी आयएएस जोशी दम्पत्ति की तस्वीर आ गई होगी। क्या हम कोल माफियाओं को भूल सकते हैं? क्या हम आन्ध्रा के रैड्डी बंधुओं को भूल सकते हैं? क्या हम खेल वाले कलमाड़ी को भूल सकते हैं? क्या हम बोफोर्स वाले क्वात्रोची को भूल सकते हैं? क्या वाड्रा और डीएलएफ के रिश्तों को भूल सकते हैं आदि आदि? यही कारण है कि भाजपा के नेता अरविंद केजरीवाल से कहते हैं कि आब आप अमुक नेता की जानकारी भी सार्वजनिक करिए। इसे कहते हैं राजनीति के बड़े आहदे पर आने बाद जमीर का मर जाना, जवाबदेही से भागना और किसी के कंघे पर बंदुक रखकर अपनी राजनीतिक जमीन को बचाए रखना। क्या स्वीकार किया जा सकता है कि किसी मुख्यमंत्री ने बुरे दिनों में किसी के घर रोटी खाई हो वह अपनी सरकार के खजाने की चाबी उस रोटी देने वाले के हाथों में सौंप दे। इन सब परिस्थितियों में ही बाबा रामदेव को जनता ने स्वीकार किया था, अन्ना हजारे के पीछे युवा दौड़ पड़े थे और अरविंद केजरीवाल को लोग स्वीकार करने लगे हैं। लेकिन अरविंद को एक वस्तुस्थिति को स्वीकार करना होगा। वह यह है कि वो जो कुछ भी हैं मीडिया रूचि के कारण हैं लेकिन राजनीतिक दल और उसे मिलने वाले वोटों का आधार मीडिया नहीं होता। मीडिया देश की सबसे बड़ी ताकत है इसे अब स्वीकार करना होगा। वह देश के हित में सोच रहा है यह भी स्वीकार करना होगा। यही कारण है कि जब भी देश के हितों के संरक्षण के लिए किसी भी व्यक्ति ने आवाज उठाई है उसे मीडिया ने सिर आंखों पर लिया है। बाबा योग सीखाते-सीखाते राजनीतिक पचड़े में इसलिए पड़ गए कि मीडिया ने उन्हें वह ऊंचाई दे दी जिसको शायद वे संभाल पाने की स्थिति में नहीं थे। अन्ना हजारे के सामने भी जो इतना बड़ा सैलाब आया वह मीडिया के कारण ही आया था। आज सलमान खुर्शीद फोटो दिखा कर यह प्रमाणित करने का प्रयास कर रहे हैं कि उन्होंने विकलांगों का धन नहीं डकारा तो वह भी मीडिया के कारण ही है। इसलिए केजरीवाल में भरी मीडिया की हवा कितने दिन तक रहेगी या बाबा-अन्ना की तरह किसी और विकल्प की ओर चली जाएगी? क्या देश के राजनीतिक दलों और सुव्यवस्थित सामाजिक संगठनों में इतनी ताकत नहीं बची है कि वे अपने में से किसी को अन्ना या बाबा जैसे व्यक्ति दे सके। किसी भी नेता में आज जयप्रकाश बनने की क्षमता क्यों नहीं है? भाजपाईयों में डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी बनने के जींस क्यों समाप्त हो गए? बिलकुल ऐसा हो गया क्योंकि राजनेताओं की करनी और कथनी में अन्तर आ गया। आपसी बात में यह खूब कहा जाने लग गया कि मंच की बात और होती है और व्यक्तिगत जीवन की बात और होती है। अपने कार्यकर्ताओं को मकान, खदान और दुकान से दूर रहने की बात जोर शोर से कहने वालों के पुत्र यही करते हुए बदनाम हो रहे हैं। इसलिए देश की मचलती हुई परेशानियां सड़कों पर आ रही हैं। उन्हें संभालने के लिए कोई प्रभावशाली नेता नहीं है। अरविंद केजरीवाल जैसे नाम को मीडिया थामें चल रही है। वह अधिक दूर तक चलने वाला चेहरा नहीं है। लेकिन उसने जो रास्ता खोल दिया है वह भारत में सुशासन की ओर जाने वाला रास्ता है। हमने कहा था कि भुजाओं की ताकत नहीं दिमाग की ताकत का दौर है यह तो अरविंद केजरीवाल ने दो विषयों को सामने रखा है। पहला सरकार में काम करने वालों की वस्तुस्थिति और गैर सरकारी संगठनों में काम करने वालों की यथास्थिति। जब वाड्रा को लेकर निशाना शुरू हुआ था तब यह संदेश गया था कि जब देश के सबसे बड़ लोकतांत्रिक राजवंश के दामाद को निशाने पर लिया जा सकता है तो कोई भी प्रभावशाली नेता अब निशाने पर आ जाएगा। बस एक बार रास्ता दिखाने की जरूरत है देश में क्रान्तिकारियों के सामने आकर कूदने वालों की कमी नहीं है। अब सबसे हिसाब मांगा जाएगा। बिना काम कैसे करोड़ों की संपत्ति बन गई। इससे राजनीति में शुद्धिकरण की स्थिति बनेगी। देश की तीस कंपनियों का सेंसेक्स लाखों व्यवसायियों का भाग्य निर्धारित करता है तथा जिस माल की डिलिवरी ही नहीं देना है उसके भाव उपभोक्ता की जेब काटने में सहायक हो रहे हैं, ऐसे में सुशासन की आस देखना जरूरी है। जिन अफसरों और नेताओं ने देश को अपने सेवाकाल में कुछ दिया नहीं उनके गैर सरकारी संगठन देश की सेवा कर रहे हैं यह कैसे संभव हो सकता है। सलमान खुर्शीद का एनजीओ विकलांगों के धन को हजम कर गया है तो ऐसे कई पूर्व मुख्यसचिवों के गैर सरकारी संगठन भी हैं जो करोड़ों खाकर उपदेश देते फिर रहे हैं। उनकी पहुंच कितनी अधिक है वह इससे ही पता चल जाता है कि एक कलेक्टर नक्सलियों के कब्जे में जाता है तो उसकी मध्यस्थता करने के लिए ये ही सामने आ जाते हैं। जब राजगोपाल आदिवासियों को लेकर दिल्ली कूंच करते हैं तो दूसरे एनजीओ वाले सामने आते हैं और सरकार के साथ समझौता करवाते हैं। यह सांठगांठ समझने के दिन आ गए हैं। इसी लिए देश में हो रही अव्यवस्था को झेलकर सुशासन के लिए सपने देखे जा सकते हैं। इस अव्यवस्था से चिन्तित होने की बजाए चिन्तित इससे होना है कि जिस राजनीतिक दल को विकल्प बनते देश देखना चाहता है वह बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने का इंतजार कर रहा है और सब देख कर भी उसकी गतिविधियां रूकी हुई हैं।