मध्यप्रदेश में जिसका डर था वही होने लगा। जान देता किसान जान लेने पर उतारू हो गया। किसान पुत्र मुख्यमंत्री होने के बावजूद सीआरपीएफ या पुलिस की गोली से सात किसानों की मौत चौतरफा सवाल करती है। सरकार उत्तर देने के बजाए अनशन कर पॉलिटिकल इवेंट का हथकंडा अपनाती है। फौरी तौर पर असंतोष और आंदोलन की आग पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के अनशन से ठंडक के छींटे पड़े हैं। अगर सरकार संभली नहीं तो ये आंदोलनों का आरम्भ है अंत कैसा होगा पता नहीं। लेकिन अच्छा तो नहीं ही होगा। असल में यह असंतोष की आग बरास्ते मंत्री, विधायक, संगठन से होती हुई किसानों से आगे कर्मचारियों और जनता के बीच दावानल बनने के संकेत दे रही है।
प्रदेशों में किसान आंदोलन की वजह राज्यों की सरकारें कम केंद्र की किसान हितैषी नीति नहीं होना भी है। उद्याेगों की प्रति समपर्ण और किसानों की उपेक्षा ने भी शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, देवेन्द्र फडनवीस, वसुंधरा राजे और विजय रूपाणी जैसे मुख्यमंत्रियों के लिए मुसीबत पैदा कर दी है। किसानों की खुशहाली के बिना देश कैसे मुस्कुरा सकता है। किसानों की अंसतोष्ा की बड़ी वजह कृषि उत्पादों के लागत मूल्य तय नहीं होना और वादे के मुताबिक लागत मूल्य में 50 फीसदी मुनाफा जोड़कर बाजार मूल्य घोषित नहीं होना भी खास है। अन्नदाता का गुस्सा प्रदेश भाजपा के गढ़ मालवा के मंदसौर-नीमच से शुरू होकर भेापाल तक पहुंच गया। राजस्थान की सीमा से लगा यह इलाका मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के लिए भी आने वाले समय में दिक्कतें पैदाकर सकता है। मंदसौर किसानों की छाती में गोली मार पहले ही दिन छह को मार दिया। उस पर प्रशासन ने सरकार को गुमराह कर कह दिया कि गोली पुलिस ने नहीं चलाई। पूरे एक दिन सरकार की फजीहत हुई और बाद में गृह मंत्री ने स्वीकार किया कि किसानों की मौत पुलिस की गोली से हुई। यहं खास बात यह है कि गृहमंत्री को पुलिस अधीक्षक ने गलत जानकारी दी। जिससे सरकार की किरकिरी हुई। और हैरत की बात यह है कि गृहमंत्री गुमराह करने वाले अधिकारी का कुछ नहीं बिगड़ा। जबकि गलत जानकारी ने सरकार की किसान हितैषी छबि का पूरा गणित ही गड़बड़ा दिया। पूरी सरकार उसकी संवेदना दांव पर लग गई। मीडिया मेनेजर चाहे जितनी सांत्वना दे मगर हालात को काबू पाने के सीएम को मंत्रालय छोड़कर दशहरा मैदान में दो दिन का अनशन करना पड़ा। ऐसा पहली बार हुआ। सियासत में इमेज का बड़ा महत्व होता है इस घटना ने शिवराज सिंह की किसान पुत्र की छबि को दागदार कर दिया है। प्रशासन ने इतना नुकसान किया जो कि उनके विरोधी भी नहीं कर पाये। असल में यह अफसरों के उपर निर्भर रहने के नतीजे है। अफसर चाहते है कि वे प्रशासन के साथ-साथ सियासी सलाह भी दे। और अपने मुताबिक फैसले भी कराये। इससे में उनकी पांचों उंगलियां घी में और सिर कढ़ाई में होता है। सरकार नहीं समझी तो यह दौर आगे भी जारी रहने वाला है। अफसरों के चश्मे से देखने और उनके कानों से सुनने की वजह से अकसर मंत्री, विधायक और कार्यकर्ता बेईमान और आम जनता गलत काम कराने वाली दिखने लगती है। ऐसे में जो काम सरकारी स्तर पर होते है वे जन हित में कम अहसान के तौर पर ज्यादा किये जाते हैं।
नौकरशाही का हावी होना इस बात का प्रमाण है कि सात किसानों की मौत्ा के बाद भी एक भी अधिकारी न तो निलंबित हुआ और न किसी के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया। इतनी बड़ी घटना के बाद भी कठोर निर्णय तो दूर की बात एस.पी. कलेक्टर को हटाने जैसे शब्दों से भी परहेज कर उन्हंे विड्रा करने जैसे शब्दों का इस्तेमान किया गया। ऐसा इसलिए कि हटाये गये अफसर आहत न हो जाये। ये एक और सबूत है कि नौकरशाही सरकार पर किस कदर हाव्ाी है। सरकार और प्रशासन कि स्थिति पर पत्रकार अमिताम बुधौलिया के फेसबुक वाल से ली गई चंद लाईने पेश है ....
“ घोड़े हैं स्वतंत्र और सवारों पे लगाम है।
आपके राज्य का बढि़या इंतजाम है,
मरती है तो मरे पब्लिक, इनकी बला से
जश्न से फुरसत नहीं, घूमना ही बस काम है।
इससे अच्छे दिन और क्यों आएंगे दोस्ताें
स्वच्छ भारत में नेताओं पे थूकना भी अब हराम है।।”
असल में अफसरों के जरिये मंत्रियों पर नकेल कसने का यह खालिस नुस्खा है जिसे कुछ सालों के बाद हर मुख्यमंत्री अपना ही लेता है। अफसर मुखिया को हर पाकञसाफ और भाग्य विधाता बना देते है। छोटे बड़े अफसर सीधे सीएम के मुह लग जाते हैं। गिरोह बना कर बाकायदा खुसामत करते हैं। हर असफलता का ठीकरा दूसरों के सर फोड़ते हैं। मंदसौर गोली कांड भी इसी का प्रमाण है। ऐसे में मुख्यमंत्री को बिन मांगी सलाह कि वे आत्म चिंतन करें। और जिन तरीकों और संगठन की मदद् से सरकार में आये हैं उसे फिर से जीवंत करें। चंपू नेता, पालतू मीडिया और चापलुस नौकरशाहों से बचें। दोषियों पर कठोर कार्रवाई जैसा कि वे कहते हैं उसे कर डाले। नही तो जनता उन्हें कमजोर मुख्यमंत्री के तौर पर देखेगी।
अनशन के जरिये एक बार फिर इवेंट मैनेजरी
जन नेता शिवराज सिंह चौहान को लगता है डेमेज कंट्रोल करने के लिए अवेंट कराने का चस्का लग गया है। नर्मदा माई से लेकर नदियों से रेत लूटने का मामला हो तो डेमेज कंट्रोल के नर्मदा सेवा यात्रा निकालों अलग बात है इसका नतीजा उल्टा पड़ा। इस विश्वव्यापी अभियान में देशव्यापी थू-थू हुई। अभी इससे उन्हें निजात भी नहीं मिली थी कि मंदसौर कांड ने उनसे मंत्रालय छुड़वा कर दशहरा मैदान में अनशन करवा दिया। इवेंट के लिए जम्बूरी मैदान के बाद दशहरा मैदान एक नई खोज है। वास्कोडीगामा बने मैनेजरों को इसके लिए बधाई। कुछ करोड़ ही खर्च आएगा 2018 के चुनाव तक जिसमें कुछ मैनेजर करोड़पति और कुछ दर्जन सहायक लखपति तो हो ही जायेंगे। अभी से उनके लिए बधाई और भविष्य के लिए शुभकामनाएं। क्योंकि नर्मदा यात्रा से लेकर मुख्यमंत्री के अनशन तक हुए खर्च का लोग अनुमान भ्ाी लगा रहे हैं और हिसाब भी मांग रहे हैं। जानकारों के मुताबिक यह आंकड़ा अरबों में है। दो दिन के अनशन के प्रबंधन का खर्च ही करोड़ों का बताया जा रहा हैं।
बहरहाल, इससे अलग भाजपा में सत्ता संगठन को लेकर हो रही गुटबाजी मुख्यमंत्री के अनशन से एकता का मेगा-शो करती दिखाई दी। पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर, प्रभात झा, कैलाश विजयवर्गीय से लेकर केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर सब एक मंच पर दिखाई दिये। पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी ने श्री चौहान को नारियल पानी पिलाकर अनशन तुड़वाया। इसी तरह कांग्रेस एकता टाॅनिक मंदसौर कांड दे गया। उसके युवराज राहुल बाबा से लेकर महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया, दिग्विजय सिंह, नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह, पीसीसी चीफ अरूण यादव और सबके बड़े भाई कमनलाथ सब एकजुट नजर आये। अगले साल चुनाव के पहले यह घटनाक्रम कांग्रेस को संजीवनी से कम नहीं हैं। प्रदेश के सियासी-नौकारशाही के हालात पर सच के आस-पास लिखने और बोलने वालों के लिए दो लाईनें खास है...
मैं दीया हूँ...
मेरी दुश्मनी तो सिर्फ अंधेरे से है
हवा ताे बेवजह ही मेरे खिलाफ है।