उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा अपने पहले सौ दिनों के कार्यकाल का रिपोर्ट कार्ड पेश करना पिछले कुछ सालों से चलन में आए उसी कर्मकांड की अगली कड़ी है, जिसमें सरकारें कैलेंडर के हिसाब से अपनी पीठ थपथपाकर खुश होती हैं। पांच साल के लिए चुनी जाने वाली सरकारों के कामकाज के दिनों के हिसाब से आकलन के लिए काफी हद तक मीडिया भी जिम्मेदार है, जिसने इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया। वास्तव में यह प्रवृत्ति किसी भी निर्वाचित सरकार की उपलब्धियों को सेमिस्टर सिस्टम की तर्ज पर आकलन करने की प्रथा के औचित्य पर ही सवाल खड़े करती है। क्योंकि इसके मूल में कामकाज के आकलन से ज्यादा राजनीतिक शो बाजी का भाव ज्यादा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी पूरे तामझाम के साथ अपनी सरकार के सौ दिनों की कामयाबियों का चिट्ठा एक बुकलेट के जरिए पेश किया। इसमें यूपी को भ्रष्टाचार मुक्त शासन का देने, कानून व्यवस्था सुधरने के दावे तथा राज्य को परिवारवाद से मुक्त कराने की प्रतिबद्धता को दोहराया गया है। योगी ने अपनी सरकार की वाहवाही के साथ यह दावा भी किया कि इस सरकार ने पिछली सरकारों की तुलना में बेहतर काम किया है। खासतौर से कानून व्यवस्था और महिला सुरक्षा के मामले में योगी के मुताबिक उनकी सरकार का काम उल्लेखनीय रहा है। खासकर एंटी रोमियो स्क्वाड तथा किसानों की कर्जमाफी योगी सरकार के प्लस प्वाइंट्स हैं। इनके अलावा राज्य को बिजली संकट और सड़कों के काफी हद तक गड्ढा मुक्त होने के दावे भी किए गए हैं। आत्ममुग्धता के इन दावों को जमीनी हकीकत के आईने में देखें तो योगी राज में मात्र सौ दिनों में ही हिंसा और कानून व्यवस्था की स्थिति और बिगड़ती नजर आती है। योगी इनसे जुड़े सवालों पर चुप्पी साध गए। दलित और गैर दलित में बढ़ते टकराव को भी उन्होंने खास अहमियत नहीं दी। जिसको लेकर खुद उनकी पार्टी भीतर से हिली हुई है। अलबत्ता इस मौके पर उन्होंने हर साल 24 जनवरी को उत्तर प्रदेश दिवस मनाने की घोषणा जरूर की।
सरसरी तौर पर योगी का यह रिपोर्ट कार्ड उन अन्य दूसरी सरकारों से अलग नहीं है, जो अपनी ही उपलब्धियों पर गदगद होती हैं। क्योंकि सत्ता मिलते ही राजनीतिक पार्टियां अपनी आंखों पर हरा चश्मा चढ़ा लेती हैं, जो पांच साल तक नहीं उतरता। जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, यह रंग और गाढ़ा होता जाता है, बिना यह देखे और समझे कि जमीनी वास्तविकता क्या है? व्यवस्था में कहां पोल है? भाजपा उत्तर प्रदेश में बदतर कानून व्यवस्था को सुधारने के मुद्दे पर चुनाव जीत कर आई थी। क्योंकि लोग समाजवादी पार्टी की गुंडागर्दी और आए दिन होने वाले दंगा फसादों से त्रस्त थे। तटस्थ भाव से देखें तो यूपी में कुछ खास नहीं बदला है, सिवाय चेहरों के। उल्टे दलित गैर दलित संघर्ष, अपराध और साम्प्रदायिक तनाव ने नए आयाम अख्तियार कर लिए हैं।
यहां विचार का मुख्य मुद्दा सरकारों का दिनों पर आधारित कामकाज के आकलन के औचित्य है। सरकार कोई फैक्टरी नहीं है कि इसमें प्रोसेस्ड माल के टाइम और फाइनल प्रॉडक्ट की मात्रा को डाटा के रूप में जनता को परोसा जाए। हर नई सरकार सत्ता में आते ही सौ दिनों में कायाकल्प के दावे इस अंदाज में करती है कि उसे ईश्वर ने फरिश्ते की तरह भेजा है। जब जवाब तलबी की बात आती है तो कहा जाता है कि सरकार तो 1800 दिनों के लिए चुनी गई है। चुनाव में जो कहा, वो पूरा करने के लिए पूरे पांच साल हैं। यानी एक तरफ उपलब्धियों के अवास्तविक दावे तो दूसरी तरफ जिम्मेदारी लेने से बचने की पतली गलियां। जब जनता आपको पांच साल के लिए चुनती है तो फिर अपने कामकाज को दिन और महीनों में बांटकर सरकारें क्या जताना चाहती हैं और किसको बताना चाहती हैं? क्या उन्हें पता नहीं होता कि जनता की हजार आंखें हैं जो किसी भी सरकार के दावे, वादे और उन पर अमल, जनकल्याण की कोशिशों की ईमानदारी, मंत्रियों का आचरण, प्रशासन की संवेदनशीलता, ईमानदारी और फर्जीवाड़े को हर पल देखती और उनकी रेटिंग रहती है। जबकि उपलब्धियों का सरकारी रिपोर्ट कार्ड वास्तव में निर्जीव आंकड़ों की लघु कथा भर होता है। जिनके भारी भरकम विज्ञापनों का आम जनता की निगाह में कोई मूल्य नहीं होता। पब्लिक के सरकार को कसौटी पर कसने के अपने मानदंड होते हैं, जो निर्वाचित सरकार के कामकाज को समग्रता और व्यापक संदर्भों की पृष्ठभूमि में मूल्यमापित करती है। योगी सरकार का सौ दिनी रिपोर्ट कार्ड भी यूपी की जनता को ऐसा चश्मा देने की कोशिश है, जिसमें से लोग वही देखें और बूझें, जो सरकार देखना और दिखाना चाहती है। हकीकत में यह खुद को भ्रम में रखना है, इससे ज्यादा कुछ नहीं।