बात तो साफ हुई कि मीडिया देवता नहीं है !
बात तो साफ हुई कि मीडिया देवता नहीं है !
संजय द्विवेदी यह अच्छा ही हुआ कि यह बात साफ हो गयी कि मीडिया देवता नहीं है । वह तमाम अन्य व्यवसाय की तरह ही उतना ही पवित्र व अपवित्र होने और हो सकने की संभावना से भरा है । २०१० का साल इसलिए हमें कई भ्रमों से निजात दिलाता है और यह आश्वासन भी देकर जा रहा है कि कम से कम अब मीडिया के बारे में आगे की बात होगी । इस मायने में २०१० एक मानक वर्ष है जहाँ मीडिया बहुत सारी बनी-बनाई मान्यताओं से आगे आकर खुद को एक अलग तरह से परिभाषित कर रहा है । वह पत्रकारिता के मूल्यों, मानकों और परंपराओं का भंजन करके एक नई छवि गढ़ रहा है, जहाँ उससे बहुत नैतिक अपेक्षाएं नहीं पाली जा सकती हैं । मीडिया एक अलग चमकीली दुनिया है । जो इसी दशक का अविष्कार और अवतार है । उसकी जड़ें स्वतंत्रता आन्दोलन के गर्भनाल में मत खोजिए, यह बाजारवाद के नए अवतार का प्रवक्ता है । इसे मूल्यों, नैतिकताओं, परंपराओं की बेड़ियों में मत बांधिए । यह अश्वमेघ का घोड़ा है, जो दुनिया को जीतने के लिए निकला है । देश में इसकी जड़ें नहीं हैं । वह अब संचालित हो रहा है नई दुनिया के, नए मानकों से । इसलिए उसे पेडन्यूज के आरोपी से कोई उलझन, कोई हलचल नहीं है, वह सहज है । क्योंकि देने और लेने वालों दोनों के लक्ष्य इससे सध रहे हैं । लोकतंत्र की शुचिता की बात मत कीजिए । यह नया समय है, इसे समझिए, मीडिया अब अपने कथित ग्लैमर के पीछे भागना नहीं चाहता । वह लाभ देने वाला व्यवसाय बनना चाहता है । उसे प्रशस्तियाँ नहीं चाहिए, वह लोकतंत्र के तमाम खंभों की तरह सार्वजनिक या कारपोरेट लूट में बराबर का हिस्सेदार और पार्टनर बनने की योग्यता से युक्त है । मीडिया ने अपने कुरूक्षेत्र चुन लिए हैं । अब वह लोकतंत्र से, संवैधानिक संस्थाओं से, सरकार से टकराता है । उस पर सवाल उठाता है । उसे कारपोरेट से सवाल नहीं पूछने, उसे उन लोगों से सवाल नहीं पूछने जो मीडिया में बैठकर उसकी ताकत के व्यापारी बने हैं । वह सवाल खड़े कर रहा है बेचारे नेताओं पर, संसद पर जो हर पांच साल पर परीक्षा के लिए मजबूर हैं । वह मदद में खड़ा है उन लोगों के जो सार्वजनिक धन को निजी धन में बदलने की स्पर्धा में जुटे हैं । बस उसे अपना हिस्सा चाहिए । मीडिया अब इस बंदरबांट पर वाच डाग नहीं वह उसका पार्टनर है । उसने बिचौलिए की भूमिका से आगे बढ़कर नेतृत्व संभाल लिया है । उसे ड्राइविंग सीट चाहिए । अपने वैभव, पद और प्रभाव को बचाना है तो हमें भी साथ ले लो । यह चौथे खंभे की ताकत का विस्तार है । मीडिया ने तय किया है कि वह सिर्फ सरकारों का मानीटर है, उसकी संस्थाओं का वाच डाग है । आप इसे इस तरह से समझिए कि वह अपनी खबरों में भी अब कारपोरेट का संरक्षक है । उसके पास खबरें हैं पर किनकी सरकारी अस्पकालों की बदहाली की, वहाँ दम तोड़ते मरीजों की, क्योंकि निजी अस्पतालों में कुछ भी बड़बड़ या अशुभ नहीं होता । याद करें कि बीएसएनएल और एमटीएनएल के खिलाफ खबरों को और यह भी बताएं कि क्या कभी आपने किसी निजी मोबाइल कम्पनी के खिलाफ खबरें पढ़ी हैं । छपी भी तो इस अंदाज में कि एक निजी मोबाइल कंपनी ने ऐसा किया । शिक्षा के क्षेत्र में भी यही हाल है । सारे हुल्लड़-हंगामे सरकारी विश्वविद्यालयों, सरकारी कॉलेजों और सरकारी स्कूलों में होते हैं - निजी स्कूल दूध के धुले हैं । निजी विश्वविद्यालयों में सारा कुछ बहुत न्यायसंगत है । यानि पूरा का पूरा तंत्र, मीडिया के साथ मिलकर अब हमारे जनतंत्र की नियामतों स्वास्थ्य, शिक्षा और सरकारी तंत्र को ध्वस्त करने पर अमादा है । साथ ही निजी तंत्र को मजबूत करने की सुनियोजित कोशिशें चल रही हैं । मीडिया इस तरह लोकतंत्र के प्रति, लोकतंत्र की संस्थाओं के प्रति अनास्था बढ़ाने में सहयोगी बन रहा है, क्योंकि उनके व्यावसायिक हित इसमें छिपे हैं । व्यवसाय के प्रति लालसा में सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है । मीडिया संस्थान, विचार के नकली आरोपण की कोशिशों में लगे हैं । यह मामला सिर्फ चीजों को बेचने तक सीमित नहीं है वरन पूरे समाज के सोच को भी बदलने की सचेतन कोशिशें की जा रही हैं । शायद इसीलिए मीडिया की तरफ देखने का समाज का नजरिया इस साल में बदलता सा दिख रहा है । इस साल की सबसे बड़ी बात यह रही कि सूचनाओं ने, विचारों ने अपने नए मुकाम तलाश लिए हैं । अब आम जन और प्रतिरोध की ताकतें भी मानने लगी हैं मुख्यधारा का मीडिया उनकी उम्मीदों का मीडिया नहीं है । ब्लाग, इंटरनेट, ट्विटर और फेसबुक जैसी साइट्स के बहाने जनाकांक्षाओं का उबाल दिखता है । एक अनजानी सी वेबसाइट विकिलीक्स ने अमरीका जैसी राजसत्ता के समूचे इतिहास को एक नई नजर से देखने के लिए विवश कर दिया । जाहिर तौर पर सूचनाएं अब नए रास्तों की तलाश में हैं । इनके मूल में कहीं न कहीं परंपरागत संचार साधनों से उपजी निराशा भी है । शायद इसीलिए मुख्यधारा के अखबारों, चैनलों को भी सिटीजन जर्नलिज्म नाम की अवधारणा को स्वीकृति देनी पड़ी । यह समय एक ऐसा इतिहास रच रहा है जहाँ अब परंपरागत मूल्य, परंपरागत माध्यम, उनके तौर-तरीके हाशिए पर हैं । असांजे, नीरा राडिया, डाली बिंद्रा, राखी सावंत, शशि थरूर, बाबा रामदेव, राजू श्रीवास्तव जैसे तमाम नायक हमें मीडिया के इसी नए पाठ ने दिए हैं । मीडिया के नए मंचों ने हमें तमाम तरह की परंपराओं से निजात दिलाई है । मिथकों को ध्वस्त कर दिया है । एक नई भाषा रची है । जिसे स्वीकृति भी मिल रही है । बिग बास, इमोशनल अत्याचार, और राखी का इंसाफ को याद कीजिए । जाहिर तौर पर यह समय मीडिया के पीछे मुड़कर देखने का समय नहीं है । यह समय विकृति को लोकस्वीकृति दिलाने का समय है । इसलिए मीडिया से बहुत अपेक्षाएं न पालिए । वह बाजार की बाधाएं हटाने में लगा है । तो आइए एक बार फिर से हम हमारे मीडिया के साथ नए साल के जश्न में शामिल हो जाएं । (दखल)(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में जनसंचार विभागाध्यक्ष हैं)