सोशल मीडिया में जीएसटी के रोलबैक को लेकर मचे शोर की तस्दीक करने के लिए सोचा, कि चलो देखें टीवी चैनल्स में क्या चल रहा है। पिछले एक महीने से राम रहीम की वही एनीमेटेड रहस्यमयी गुफा देखते देखते उकता सा गया था सो कई दिनों से चैनल्स खोलने की हिम्मत ही नहीं हुई। बहरहाल टीवी खोलते ही चैनलों में फिर वही बकवास चल रहा था, एक में किंमजोंग, दूसरे में रामरहीम की हनीप्रीत..हनीप्रीत। रात दस बजे का प्राइम टाइम इन्हीं के नाम था।
कुछेक अँग्रजी चैनल जरूर इकोनामिस्टों को बैठाकर जीएसटी पर बहस चला रहे थे। अँग्रेजी समझने में वैसे भी दिमाग में अतिरिक्त जोर देना पड़ता है ऊपर से भभकती हुई लपटों वाले टीवी स्क्रीन से सिर्फ चीख और चिल्लाहट सिवाए कुछ भी सुनाई नहीं देता। हमारा मीडिया भेड़ियाधसान है। जिधर एक भेड़ चली उधर ही सब निकल पड़ी। अर्नब ने जबसे ..नेशन वान्ट टु नो...की चिल्लपों शुरू की तब से सभी चैनल देशवासियों की जिग्यासा के स्वयंभू ठेकेदार बने हुए हैं। चैनलों ने भी एक दूसरे की देखा देखी एक अजीब सा तिलस्म रच रखा है। पढे लिखे एंकर भी उसीमें उलझे हैं,कई प्रिंट मीडिया से गए वे भी। जब वे अखबारों में तब अच्छी खासी विवेकसम्मत बातें लिख लिया करते थे। वही लोग जब किमजोंग की सनक और हनीप्रीत की रंगीन दुनिया को चटखारे के साथ परोसते हैं तो निरा जोकर लगते हैं।
किमजोंग से पहले बगदादी का बुखार चढा़ था।.. बच के कहां जाएगा बगदादी.. जैसी पंच लाइनों के साथ सभी चैनल एकजुट होकर पिले थे फिर भी वो बचा हुआ है। इन दिनों किमजोंग के आगे बगदादी भूला हुआ है। उत्तर कोरिया के इस तानाशाह को लेकर जो फुटेज दिखाए जाते हैं,सभी चैनलों में लगभग एक से। तो क्या किमजोंग इन्हें यह उपलब्ध कराया है या अपने चैनलिया वीरबहादुर जान जोखिम में डालकर प्योंगयांग से शूट करके लाए हैं ?
उत्तर कोरिया क्या तबाही मचाना चाहता है उसके पूरी कहानी और फुटेज की पटकथा कहीं और लिखी जाती है। किमजोंग सनकी है ये हम खुद नहीं चूंकि हमें बार बार यही बताया जा रहा है इसलिए मान बैठे हैं कि सनकी ही होगा। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि उत्तर कोरिया व किमजोंग को लेकर लगभग वही सब दोहराया जा रहा है जो कभी ईराक और सद्दाम को लेकर, लीबिया और गद्दाफी के साथ किया गया था।
दरअसल यह किसी देश के खिलाफ युद्ध पूर्व प्रपोगंडा होता है ताकि उसपर हमले के लिए विश्व जनमत तैयार किया जा सके। दुनिया की नब्बे फीसदी सूचनाओं पर एसोशियेटड प्रेस आफ अमेरिका(एपी), रायटर ब्रिटेनऔर एएफपी फ्रांस का कब्जा है। ये तीनों मिलकर किसी भी देश या व्यक्ति की छवि को पलभर में नरकिस्तान और राक्षस गढ सकते हैं। शेष दुनिया की सभी मीडिया एजेंसियों से इनका अनुबंध होता है। इसी नियंत्रण को तोड़ने के लिए अरब में ..अलजजीरा.. पैदा हुआ था लेकिन अब उसे भी बधिया बना दिया गया। ताकतवर देशों के इस हेट मीडिया मिशन से क्यूबा के फिदेल कास्त्रो और लीबिया के ह्यूगोसावेज इसलिए बचे रहे क्योंकि ये गद्दाफी और सद्दाम की भाँति आत्ममुग्ध व स्वेच्छाचारी नहीं थे और देश की जनता की नब्ज इनके हाथ थी और दुनिया भर में अपने शुभचिंतक बना रखे थे।
याद करिए 1982 में नई दिल्ली में हुए गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सम्मेलन के अगले वर्ष यहीं तीसरी दुनिया के मीडिया का सम्मेलन हुआ था। इसे ..नामीडिया.. के नाम से जाना गया। इस सम्मेलन में ये बात किसी पंच लाइन की तरह उभरकर आई थी कि ...अमेरिका के एटमबम्ब से ज्यादा खतरनाक है एपी और रायटर। शायद यह किसी अखबार की हेडलाइन ही थी। उस वक्त मैं पत्रकारिता का विद्यार्थी था सो इस वैश्विक मीडिया सम्मेलन की खबरों की क्लिपिंग सालों तक मेरे संदर्भ में रही है। सम्मेलन में दूसरी बड़़ी बात जो निकल कर आई थी वो ये थी कि सूचनाओं के अधिनायकवाद से कैसे मुक्त हुआ जाए? एक सहमति बनी थी कि तीसरी दुनिया की मीडिया एजेंसियों का परिसंघ बने जो गुटनिरपेक्ष देशों के हितों की रक्षा कर सके। दुर्भाग्य से 1984 में तीसरे विश्व की नेता इंदिरा जी इस दुनिया में रही नहीं। गुटनिर्पेक्ष आंदोलन बिखरने लगा, रही सही कसर 1989 में सोवियत विघटन ने पूरी कर दी। और तब से दुनिया एकध्रुवीय व्यवस्था के आधीन है, जिसका स्वयंभू चौधरी अमेरिका है।
अब अमेरिका जो चाहता है भारत जैसे देशों का मीडिया वही दिखाता है क्यों कि वैश्विक मामलों में हमारा मीडिया कंगाल है। वे हमारे मीडिया को एक प्रपोगंडा मशीन की भांँति उपयोग करते हैं, हो सकता है इसके लिये वे पैसा भी देते हों। इराक युद्ध कवर करने गए एक पत्रकार ने पोल खोली थी कि किस तरह विदेशी मीडिया को युद्ध क्षेत्र से सैकडों किलोमीटर दूर किसी शहर के आलीशान होटलों में ठहराया जाता था। शाम को एक सैन्य अधिकारी फुटेज और ब्रीफिंग थमा देता था। वही सब चैनल्स देश को दिखाते थे और अब भी वही कर रहे हैं।
दरअसल अमेरिका का मुख्य धंधा हथियारों का है। सो यदि युद्ध नहीं हुए, युद्ध का भय नहीं बना तो उसका बाजार धड़ाम से गिरकर दीवालिया हो जाएगा। गौर करिए कि क्या ऐसा कोई भी दिन,महीना या हफ्ता गुजरा है जब दुनिया के किसी कोने में युद्ध न हो रहा हो। रही आतंकवादियों की बात तो पिछले दिनों यूएनओ में पाकिस्तान के प्रतिनिधि ने यह कहकर आईना दिखा दिया कि कभी वो भी दिन थे जब ह्वाइट हाउस हाफिज सईद जैसे लोगों के लिए रेड कारपेट बिछाए रहता था। ये उस दौर की बात है जब अफगानिस्तान में सोवियत पालित सरकार थी और अमेरिका तालेबान और अलकायदा जैसे संगठनों को खड़ा करने की भूमिका में था। सो युद्ध के बाजार के लिए जरूरी है कि माहौल बना रहे, चाहे वह उत्तर कोरिया के किमजोंग के जरिए बने या आतंकवादी संगठनों के। जापान और दक्षिण कोरिया एशिया के ये दो सबसे बड़े सेठों में हैं,जब ये डरे रहेंगे तभी तक अमरीकी जंगीबाजार गुलजार रहेगा। इस फेर में गरीब भारत और पाकिस्तान भी फँसे हैं, जो शिक्षा और स्वास्थ के बजट मदों की कटौती करके रक्षा बजट बढाते जा रहे हैं।
चैनलों के एंकर अब सेलिब्रिटी हैं जाहिर है मैं उनके मुकाबले जाहिल हूँ। वे इंडिया इंटरनेशनल, कांस्टीट्यूशन क्लब की बौद्धिक बैठकों गप्पे मारते हैं।लेकिन यही लोग जब डिजाइन सूट पर टाई बाँधे जोकरों जैसी हरकत करते हुए बेसिरपैर की वही-वही खबरें परोसते हैं तो इनकी नियति पर तरस आता है। अपना मीडिया या तो किसी वैश्विक ताकत की प्रपोगंडा मशीन है या फिर किसी की इज्जत की धज्जियाँ बिखेरने वाला परपीडक यंत्र।
हनीप्रीत के साथ यही हो रहा है। अदालत से पहले ही सब ट्रायल में लगे हैं। अपने अपने तईं फैसला भी सुना रहे हैं। मीडिया एक महिला के इज्ज़त की चिंदियां बिखेर रहा है, हम देख रहे हैं। पूरा मीडिया उस डरी हुई लड़की के मुँह से कहवाना चाहता है कि ..कह.. तू अपने बाप की रखैल थी..। मुँह ढंके आयटमों से हनीप्रीत का रहस्य, रोमांच व प्रेमकथाएँ उगलवाई जा रही हैं। ये सब मीडियाकी फ्राडगीरी का हिस्सा है जो महज टीआरपी के लिए चल रहा है। यदि हनीप्रीत अदालत से बरी होती है तो क्या उसके इज्जत की धज्जियों का शाल बुनकर ये चैनल वाले उसकी इज्जत लौटा पाएंगे ? ये निहायत गलत हो रहा है। महिला अधिकार की लड़ाई लड़ने वाली वो बाबकटें कहां हैं..? क्या उन्हें ये सब नहीं दिख रहा कि टीवी स्क्रीन पर एक पथ से भटकी हुई हिरण को शिकारी कुत्तों की तरह नोंचा जा रहा है। याद रखिये आज जो हम कर रहे हैं प्रकारान्तर में अपने भविष्य का ही इंतजाम कर रहे हैं।