राजनीति में समझौते का लोकतंत्र
राजनीति में समझौते का  लोकतंत्र
डॉ. विजय अग्रवालआज देश का प्रत्येक जिम्मेदार और संवेदनशीन नागरिक इस बात को लेकर परेशान है कि उसके पास कांग्रेस और भाजपा के विकल्प क्या हैं? उसने दोनों को देख लिया है और अच्छी तरह देख लिया है। चुनावी इतिहास की 62 साल की यात्रा के बाद उसके मन में अब शायद ही कोई संदेह रह गया है, जैसा कि अरविंद केजरीवाल ने कहा भी है कि इन दोनों की आपस में साठगांठ है। कई राच्यों ने इन दोनों बड़ी पार्टियों को नकारकर जब क्षेत्रीय पार्टियों को गले लगाया तो उनके भी हाथों को उसने अपने गले के पास ही पाया। यहां तक कि छात्र आंदोलन के गर्भ से पैदा हुई असम गण परिषद तक इस चरित्र से स्वयं को अलग नहीं रख सकी।राच्यों ने फिल्म स्टारों को नेतृत्व सौंपा , युवा को नेतृत्व सौंपा , विशुद्ध शोषित वर्ग के हाथों नेतृत्व सौंपा (बहुजन समाज पार्टी), तीस साल की मा‌र्क्सवादी सत्ता से तंग आकर जड़ों से जन्मी पार्टी के हाथ में बागडोर सौंपी (तृणमूल कांग्रेस) किंतु कोई भी प्रयोग राजनीतिक दृष्टि से उसे राहत नहीं दे पा रहा है। लगता है कि सत्ता का वर्ग चरित्र इतना अधिक प्रबल होता है कि उसकी जकड़न से बच पाना हमारे नेताओं के बूते की बात नहीं है। सवाल यह है कि तो फिर लोग क्या करें?अक्टूबर के अंतिम सप्ताह में नई दिल्ली में डॉ. राममनोहर लोहियों को याद करने के बहाने समाजवादी पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, तेलुगूदेशम तथा अन्य कुछ पार्टियों के नेता मिले और उन्होंने एक बार फिर से तीसरे मोर्चे की संभावना पर विचार किया। तीसरे मोर्चे के गठन और उसके सत्तासीन होने का एक प्रयोग यह देश कर चुका है। उसके परिणाम भी उसके सामने मौजूद हैं। उस समय का यह तथाकथित 'गुटनिरपेक्ष आंदोलन' मूलत: सांप्रदायिकता के खिलाफ एकजुट था। दो मुख्य गुटों में कांग्रेस को ये लोग धर्मनिरपेक्ष तथा भाजपा को सांप्रदायिक पार्टी मानते थे। जरूरत पड़ने पर इनके द्वारा कांग्रेस को भी समर्थन इस दलील पर दिया गया, ताकि एक सांप्रदायिक पार्टी को सत्ता में आने से रोका जा सके। इसी तर्क पर एक प्रकार से पूरे देश की सभी छोटी-बड़ी पार्टियों का ध्रुवीकरण हुआ, जो कमोबेश आज भी उसी रूप में अपनी पहचान बनाए हुए है।तीसरे मोर्चे के गठन मूल तत्व - सांप्रदायिकता का विरोध। यह तत्व अब निष्प्रभावी हो चुका है और जो इसके विरोध में हैं, वे भी वोटों के लिए हैं। पांच साल तक केंद्र में रहने के बाद भी यदि भाजपा अयोध्या में कुछ नहीं कर पाई तो यह इस बात का प्रमाण है कि यह देश सांप्रदायिकता को स्वीकार नहीं कर सकता। यहां तक कि यदि आज देश की कई दिशाओं से तथाकथित सांप्रदायिक नेता नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की आवाज सुनाई दे रही है तो इससे भी यही लगता है कि अब इसके मायने बदल चुके हैं।किसी समय राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित रहे क्षेत्रीय नेता चंद्रबाबू नायडू फिलहाल हाशिये पर हैं। कर्नाटक में जनता दल की मौजूदगी इस बारे में कोई बड़ी भूमिका निभा सकेगी, कतई नहीं लगता। अन्नाद्रमुक से लोग बहुत संतुष्ट नहीं हैं। अखिलेश यादव का नेतृत्व राच्य में जितनी तेजी से अपनी लोकप्रियता खोता जा रहा है, विशेषकर सुशासन के मामले को लेकर, वह निश्चित तौर पर मुलायम सिंह की पकड़ को कमजोर करेगा। केंद्रीय मंत्री तथा राच्य के मुख्यमंत्री के रूप में ममता बनर्जी के जो तेवर रहे हैं, उन्हें भारतीय मानस बहुत स्वीकार कर पाने की स्थिति में नहीं है। हालांकि उनके पक्ष में एक अच्छी बात यह है कि उनका दामन आर्थिक अपराध के दाग से मुक्त है, लेकिन उनका अतिवादी व्यवहार लोगों को उनके नेतृत्व के प्रति बहुत आश्वस्त नहीं कर पाता। एक पेंच यहां यह भी है कि इस तीसरे मोर्चे में इन दो में से केवल एक ही रह सकता है- या तो मा‌र्क्सवादी पार्टियां या फिर तृणमूल कांग्रेस। यह विकल्प तीसरे मोर्चे के गठन की एक बड़ी बाधा होगी, जिसका हल ढूंढ़ पाना आसान नहीं होगा।अब बचते हैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। निस्संदेह उन्होंने अपने शासन को काफी हद तक भ्रष्टाचार से मुक्त करने में सफलता पाई है। नीतीश का नरेंद्र मोदी विरोधी स्वर भी कहीं न कहीं उनकी महत्वाकांक्षा की ओर इशारा करता है, लेकिन उनके सामने फिलहाल धर्मसंकट यह होगा कि वह कैसे भारतीय जनता पार्टी से अपना पल्ला झाडें़, क्योंकि उनकी सरकार भाजपा के सहयोग से चल रही है। ऐसी स्थिति में आम चुनावों में अपने राच्य में भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ना उनकी राजनीतिक मजबूरी हो जाएगी। यदि वह ऐसा करते हैं तो उन्हें तीसरे मोर्चे से अलग होना पड़ेगा। साथ ही राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए नरेंद्र मोदी से प्रतियोगिता भी हो सकती है।कुल मिलाकर परिदृश्य यह उभरता है कि तीसरे मोर्चे की संभावना की जरूरत चाहे जितनी भी महसूस की जा रही हो, लेकिन उसके अस्तित्व में आकर सत्ता को बदलने की संभावना लगभग शून्य ही है। तीसरे मोर्चे के रूप में उभरने की कोशिश कर रहे अरविंद केजरीवाल की पार्टी को अभी लंबी यात्रा करनी है। आगामी चुनाव कांग्रेस और भाजपा, इन्हीं दो बड़ी पार्टियों के नेतृत्व में होगा। अब इन दोनों पार्टियों की भी इतनी ताकत और साख नहीं रह गई है कि ये अपने दम पर सत्ता के सिंहासन को पा सकें। इन्हें राच्यों के स्तर पर वहां की पार्टियों से समझौते करने होंगे। इस प्रकार अब भारत की राजनीति में 'समझौते के लोकतंत्र' का सिद्धांत दिनोदिन पुख्ता होता जाएगा, क्योंकि लोगों के सामने कोई पुख्ता विकल्प मौजूद नहीं है।