क्यों नहीं होती है पाप करने के बाद आत्मग्लानि ?
एन.के सिंहपुराने ज़माने में नैतिक धरातल पर प्रायश्चित की एक संस्था थी। गाहे-बगाहे अगर किसी से पाप हो गया तो वह सार्वजनिक रूप से इसे बताता था और फिर प्रायश्चित करके अपने को उस पाप की ग्लानि से मुक्त करता था। यह संस्था हिंदू धर्म में भी थी और इसाई तथा अन्य कई धर्मों में भी थी। समय बदला। कलमाड़ी ने एक पाप किया परन्तु प्रायश्चित तो दूर वह इस बात से अपने को बचाना चाहते हैं कि उन्हे भूलने की बीमारी हो गयी है। ए.राजा ने भी कुछ ऐसा ही किया और उनका तर्क है कि हमाम में हम अकेले नहीं थे। यानि दोनो के इस रवैये से स्पष्ट है कि आत्मग्लानि- जनित स्वशुद्धि की भावना कहीं दूर-दूर तक उन्हे छू भी ना सकी।ठीक इसके विपरीत ग्वालियर के जी.आर.पी थाने में उमराव उइके नामक एक हवलदार ने गत 21 जुलाई को हिरासत में हुयी एक हत्या से पैदा हुयी आत्मग्लानि की आंच को नहीं झेल पाया और स्वयं ही अपना आंशिक जुर्म कबूल करते हुए बताया कि उस कैदी की लाश को किस तरह सरकारी गाड़ी में डाल कर उसका अफसर चंबल नदी में फेंक दिया। उसे यह मालूम है कि इस कबूलनामें के बाद उसे भी सजा हो सकती है। इस बयान के बाद से उसे जान से मारने की धमकियां मिल रहीं हैं और बड़े अफसर भी नाखुश हैं। अब एक ओर अगर हम कलमाड़ी और राजा को रखें और दूसरी ओर इस हवलदार उमराव उइके को तो दोनों में कौन बेहतर मानव माना जाएगा ? किसके आचरण से मूल्यों की सुरक्षा होगी ? और किसका आचरण मूल्यों को रसातल पहुंचाते हुए एक नयी अपसंस्कृति को पैदा करेगा ?शहर के किसी व्यस्त चौराहे पर जब लाल बत्ती पार करता हुआ एक लंपट किसी कानून का पालन करने वाली कार से भिड़ जाता है और उसके बाद उसके साथ के शराब पिए हुए दो गुंडे उस कार चालक को मारने लगते हैं क्योंकि वे किसी मंत्री के रिश्तेदार होते हैं तो उनमें और कलमाड़ी और राजा के बचाव में एक साम्य दिखायी देता है। एक अन्य घटना लीजिए। दिल्ली से सटे गा़जियाबाद में एक इंजीनियर अपनी पत्नी के साथ मोटरसाइकिल से जा रहा था। कुछ बदमाश पत्नी का चेन खींचकर भागे, इंजीनियर ने पीछा किया और एक को पकड़ लिया। दूसरे बदमाश ने भरी भीड़ में उसे गोली मार दी। कोई 100 से ज्यादा लोग इसे देख रहे थे लेकिन एक आदमी भी इंजीनियर को बचाने या बदमाशों को पकड़ने आगे नहीं आया। यह शहरी इलाका है। इसके 24 घंटे के अंदर 25 किलोमीटर दूर उसी ज़िले के ग्रामीण इलाके पिलखुआ में तीन लुटेरे एक घर में घुसे। लूट के दौरान उन्होनें गोली चलायी जिसकी आवाज़ सुनकर पड़ोस के युवक अपने घर से हॉकी लेकर दौड़े। आस-पास के अन्य लोग भी जुट गए और एक लुटेरे को मार गिराया जबकि अन्य दो भागने में सफल रहे। आज प्रश्न यह है कि हम जी.डी.पी बढ़ाने वाली शहरी संस्कृति को चुनें जिसमें हर क्षण बलात्कार या जान गवाने का भय रहता है या कि सामाजिक सुरक्षा बढ़ाने वाली ग्रामीण संस्कृति को ?बीसवीं सदी में इमाइल दुर्खिम और इक्कीसवीं सदी में फुकुयामा ने इसी सामुदायिक भावना पर जोर दिया। रॉबर्ट पुटनम की सामाजिक पूंजी का सिद्धान्त भी इसी व्यक्ति-समुदाय के संबंधों की विश्वसनीयता पर आधारित है।गौर से देखने से पता चलेगा कि भारतीय समाज का बहिरंग अराजक दिखता है जबकि इसका अंतरंग बेहद शांतिप्रिय, सामुदायिक और परोपकारी है।कोशिश यह हो रही है कि इस अंतरंग चेतना को शहरीकरण के ज़रिए तथा शहरीकरण-जनित विकास के नाम पर धीरे-धीरे खत्म कर दिया जाए जिसमें प्रायश्चित का भाव ही पागलपन माना जाए और भूलने की बीमारी(डिमेंशिया) को तर्कसिद्ध। यानि कलमाड़ी और राजा सच साबित हों और हवलदार पागल। इस तथाकथित परिवर्तन के नायकों को यह नहीं मालूम कि मूल रूप से भारतीय समाज “संबंध” पर आधारित है व्यवस्था रही है जबकि यूरोपीय समाज (जैसा कि रूसो ने बताया) कॉन्ट्रैक्ट पर आधारित। इन्हे शायद यह भी समझ नहीं आएगा कि भारतीय समाज को जो बहिरंग है वह ना केवल अराजक है बल्कि छलावा भी और यही वजह है कि आज भारत का अंतरंग जागा है, अन्ना हज़ारे इसी का उद्भव हैं।अर्थशास्त्र में एक सिद्धान्त है जिसका नाम है इस्टरलिन पैराडॉक्स(विरोधाभास)। 1974 में रिचर्ड इस्टरलिन ने कहा कि आर्थिक विकास और आत्मतोष का कोई सीधा संबंध नहीं होता। अपनी बात की पुष्टि के लिए उन्होंने एक सर्वे का हवाला दिया जिसमें द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1950 से लेकर 1970 के बीच जापान में हुए ज़बरदस्त आर्थिक विकास का जायज़ा लिया गया है। सर्वेक्षण में पाया गया कि उन लोगों का प्रतिशत काफी कम हुआ जो कि सम्पन्न तो हुए लेकिन उनके जीवन का संतोष कम हुआ।भारतीय समाज को अगर किसी ने ठीक से परखा तो कार्ल मार्क्स और गांधी ने। मार्क्स ने 25 जून 1853 को न्यूयार्क के डेली ट्रिब्यून में एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा-“भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पूंजीवादी व्यवस्था से कम शोषण है”। मार्क्स ने आगे लिखा कि भारत में जितने भी गृहयुद्ध, आक्रमण, क्रान्ति, फतह या अकाल भले ही विनाशकारी दिखायी देते हों लेकिन ये सतह को ही छू पाते हैं। लेकिन ब्रितानी हुकूमत ने भारतीय समाज की मूल संरचना को जानबूझकर छिन्न-भिन्न कर दिया है। देशज सामूहिक इकाइयों को, कुटीर उद्योग को खत्म किया और जो भी मूल्य इस देश समाज में थे उनको नेस्तनाबूत करने की कोशिश की।अंग्रेजों के आने से पहले भारत का 40 प्रतिशत व्यक्ति कुटीर उद्योग में लगा था। लॉर्ड क्लाइव का कहना था कि मुर्शीदाबाद लंदन से ज्यादा समृद्ध है। दुनिया की जी.डी.पी में भारत का योगदान लगभग 31.5 प्रतिशत था जो कि आज केवल तीन प्रतिशत है। उन 100 सालों के अंदर करीब 30 प्रतिशत आबादी कुटीर उद्योग से बाहर होकर अपराध, भीख व अन्य गैरकानूनी धंधों में शामिल हो गयी।याद करें सदी के अंत में रॉबर्ट पुटनम द्वारा प्रतिपादित सामाजिक पूंजी का सिद्धान्त। पुटनम ने पहले इटली में और बाद में अमेरिका में, व्यापक और कई सालों तक किए गए एक सर्वेक्षण से सिद्ध किया कि अमेरिका में सामाजिक पूंजी बुरी तरह घट रही है। भारत में भी हाल के आंकड़ों से पता चला है कि यहां भी ऐसा ही सिलसिला शुरू हुआ है। आज से 20 साल पहले जहां हर व्यक्ति प्रतिदिन 30 मिनट सामाजिक रूप से जुड़ा रहता था वहीं आज यह समय घटकर 12 मिनट हो गया है।सामाजिक पूंजी से तात्पर्य होता है व्यक्ति का पारिवारिक, सामाजिक व औपचारिक संस्थाओं में विश्वास। व्यक्ति के इस विश्वास को कलमाड़ी, राजा, येदियुरप्पा या अन्य तमाम सत्ता में बैठे भ्रष्ट लोग लगातार कम करते जा रहे हैं। नतीजतन सामाजिक पूंजी लगातार घटती जा रही है। प्रश्न यह है कि जी.डी.पी बढ़ना कलमाड़ियों और राजाओं को जन्म देगा या और उमराव उइके पैदा होंगे। लेखक एन.के सिंह वरि वरिष्ट पत्रकार हैं