भयावह हो सकता है घटते बाल लिंगानुपात को नज़रअंदाज़ करना
उपासना बेहारइस चुनाव में पार्टीयों के घोषणा पत्रों में हिन्दुस्तान में आधुनिक तकनीकि की मदद से कन्या भ्रुण हत्या को लेकर कोई जिक्र ही नही है। ऐसा तब है जब हम वर्ष 2011 जनगणना के आंकड़ों में पाते हैं कि इस दौरान 0 से 6 आयु समूह के बच्चों के लिंगानुपात में सबसे ज्यादा गिरावट देखने में आयी है, जहाॅ 1000 बालकों के मुकाबले बालिकाओं का अनुपात 914 तक आ गया है। ध्यान देने वाली बात यह है कि अब तक की हुई सारी जनगणनाओं में यह अनुपात सबसे न्यून्तम है। जो कि हमारे समाज और सरकार दोनों के लिए ही चिंता का सबब है लेकिन यह राजनीति और समाज दोनों के ऐजेंड़े से गायब दिखायी देता है।हमारे देश में हर राज्य की अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक पहचान है, इसी विभिन्नता के कारण हम पाते हैं कि एक ही देश में बाल लिगानुपात की स्थिति अलग अलग हैं। जहाॅ नार्थ और वेस्ट के राज्यों में यह अनुपात कम है, वही साउथ और ईस्ट में यह अनुपात अधिक है। देश के सबसे निम्नत्म बाल लिंगानुपात हरियाणा (830), पंजाब (846), जम्मू कष्मीर (859) हैं जबकि सबसे ज्यादा बाल लिंगानुपात वाले तीन राज्य मिजोरम (971), मेधालय (970), अंड़मान निकोबार (966) हैं। यह आकंड़े बताते है कि बाललिंगानुपात के कम होने का संबंध अमीरी या गरीबी से नही है। बाल लिंगानुपात के कम होने का कारण प्राकृतिक नही है, बल्कि यह एक मानव निर्मित परिघटना है। यह समस्या देश के सभी हिस्सों, जातियों, वर्गो और समुदायों में व्याप्त है। भारतीय समाज का बच्चियों के प्रति नजरिया, पितृसत्तात्मक सोच, सांस्कृतिक व्यवहार, पूर्वागृह, सामाजिक-आर्थिक दबाव, असुरक्षा, आधुनिक तकनीक का गलत इस्तेमाल बाल लिगानुपात को कम करने के कारण है। भारतीय समाज एक पितृसत्तात्मक समाज है। जहाॅ लड़के को ही घर का भावी मुखिया, कर्ताधर्ता, बुढ़ापे का सहारा एवं वंश परंपरा को आगे बढ़ाने वाला माना जाता हैं। परिवार में कन्या के जन्म पर मायूसी और शोक छा जाती है। फिर चाहे वो अमीर परिवार हो या गरीब परिवार, शिक्षित परिवार हो या अशिक्षित परिवार। इसी बेटे के मोह के चलते हर साल लाखों बच्चियाॅ जन्म लेने से पहले ही मार दी जाती हैं और यह सिलसिला थमने के बजाये बढ़ता ही जा रहा है। हमारे समाज में (विशेषकर हिन्दू समुदाय) में यह भी धारणा है कि लड़के द्वारा अंतिम संस्कार करने पर ही मृत आत्मा को मोझ की प्राप्ती होती है। यानी इस जीवन के लिए तो लड़के की जरुरत है ही साथ ही जीवन के बाद के लिए भी लड़के की जरुरत होती है। दहेज भी लड़की ना चाहने के एक प्रमुख कारण हैं। अधिकाँश परिवारों में जिस दिन से बेटी का जन्म होता है उसी दिन से दहेज की चिंता होने लगती है। देश में दहेज विरोधी कानून होने के बाद भी दहेज के लिए लड़कियों को मारने की घटनाऐं बढ़ती जा रही है। इसे दूर करने के लिए किये जा रहे प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं। इस समस्या का एक ओर कारण समाज में बेटी को परिवार की ‘इज्जत’ माना जाना है। वर्तमान समय में जिस तरह से वातावरण महिलाओं के सुरक्षा के लिहाज से संवेदनशील है ऐसे में उनके लिए इस असुरक्षित माहौल में बेटी की सुरक्षा करना एक चुनौती है। आधुनिक टेक्नालाॅजी जैसे अल्ट्रासाउंड, एम्नियोसिंटेसिस इत्यादि की खोज गर्भ में भ्रुण की विकृतियों की जाॅच के लिए किया गया था लेकिन इसका भी दुरुपयोग हो रहा है और इसका इस्तेमाल भ्र्रूण का लिंग पता करने और लड़कियों की भ्रुण हत्या करने में किया जा रहा है। शुरुवात में लिंग आधारित गर्भपात शहरी फिनामिना था लेकिन धीरे धीरे गाॅव में भी फैलता जा रहा है। समाज में लड़कियों के प्रति अनिच्छा होने का एक कारण उनके प्रति बढ़ता अपराध भी है। महिलाओं और बच्चियों के साथ घरेलू हिंसा, यौन हिंसा, अपहरण, बलात्कार, छेड़छाड़, टैªफिकिंग, हत्या, आॅनर किलिंग इत्यादि की घटनाऐं बढ़ रही है। आज के दौरा में महिलाओं और बच्चियों घरों में भी सुरक्षित नही है। सरकार और समाज दोनों ही बच्चीयों को सुरक्षित माहौल नही दे पा रही है। ऐसे में इसका प्रभाव बाल लिंगानुपात पर भी पड़ता है। कन्याओं के कम होने का एक और कारण उनकी मृत्यु दर का अधिक होना भी है लेकिन इसका कारण जैविक ना हो कर मुख्यतः सामाजिक है क्योंकि अगर हम जैविक रुप से देखें तो लड़कियों में जीने की क्षमता लड़कों की तुलना में ज्यादा होती है। फिर भी उनकी मृत्यु दर लगातार बढ़ती जा रही है। इसका प्रमुख कारण बच्चीयों की ठीक तरीके से देखभाल ना करना है। इसी के चलते लड़कों की अपेक्षा लड़कियाॅ कुपोषण और एनिमिक की ज्यादा शिकार होती हैं। बहुत बार यह सवाल आता है कि मां अपनी बच्ची का गर्भपात कराने को राजी कैसे हो जाती है, दरअसल पितृसत्ता एक विचार है जो की पूरे समाज में व्याप्त होता है जिसका असर कमोवेश महिला और पुरुष में समान होता है। हालाकि पितृसत्ता हमेशा महिलाओं के खिलाफ ही होता है। दूसरी तरफ स्त्री का अपने शरीर पर अधिकार नही होता है। पुत्र के मोह में फंसे इस समाज और परिवार को अगर वह पुत्र देने में असफल होती है तो उसके साथ अमानवीय व्यवहार जैसे ताने देना, मारपीट करना, जला देना, घर से निकाल देना इत्यादि किया जाता है। हमें यह भी समझने की जरुरत है कि उस महिला का विकास भी समाज की उसी पितृसत्तात्मक सोच के साथ हुआ है जहाॅ बेटा ही प्रमुख है और बेटी अनचाही लेकिन इससे वह लड़की पैदा होने पर अपने को अपराधिन मानने लगती है। इस लिए महिला का मानस भी बेटी की जगह बेटे को ही प्राथमिकता देता है। इस समस्या ने निपटने के लिए सरकार द्वारा दो तरफा प्रयास किये जा रहे हैं, एक ओर तो इस समस्या से निपटने के लिए विभिन्न योजना, कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं वही दूसरी ओर वही इस समस्या से सबंधित कानून भी बनाये जा रहे हैं। लेकिन सरकार इस कानूनों के प्रति कितनी गंभीर है यह इस बात से ही पता चल जाता है कि उच्चतम न्यायलय को कई बार इस कानून को सही तरीके से लागू करने के लिए निर्देश देने पड़े हैं। आखिर क्या कारण है कि सराकरों के इतने प्रयास के बाद भी बाललिंगानुपात की स्थिति बद् से बद्तर होती जा रही है ? सरकारों के द्वारा किये जाने वाले प्रयास क्या सही दिशा में हो रहे हैं? क्या लिंगानुपात को कम करने के कारणों के जड़ तक पहुॅच कर उस पर कार्यवाही की जा रही है? इस सब पर हमें गंभीरता से सोचने की जरुरत है। ऐसे में अगर लगातार गिर रहे बाललिंगानुपात को खत्म करना है तो कानून को कठोरता से लागू करना होगा साथ ही साथ समाज की सोच में बदलाव लाना होगा। लड़कियों के प्रति हो रहे भेदभाव को रोकना होगा। लड़के और लड़की को समान शिक्षा, स्वास्थ तथा रोजगार के अवसर, संपत्ति में समान अधिकार देने होगें। जो लोग बिना दहेज लिए शादी करते हैं उनका सम्मान तथा उनको सरकार द्वारा चलायी जा रही योजनाओं, बैक लोन इत्यादि में फायदा मिलना चाहिए। सरकार द्वारा दो लड़की वाले परिवारों को बढ़ावा देना चाहिए और इन बच्चियों के शिक्षा तथा अन्य खर्चो को सरकार द्वारा वहन करना चाहिए। ऐसे एड़/ स्लोगन/ नारे जो पितृसत्तात्मक सोच को बढ़ावा देते हैं या जिनकी भाषा पितृसत्तात्मक हो उन पर तत्काल रोक लगनी चाहिए। लेकिन यह सब होगा कैसे और करेगा कौन ? क्योंकि हम देख रहे हैं कि गंभीर रुप से लड़कियों का लगातार कम होना जारी है। इसे रोकने के तमाम सरकारी प्रयास कागजी साबित हो रहे हैं दूसरी तरफ समाज में भी इसको लेकर कोई हलचल नही दिखायी देती है। इसके बजाये समाज के हर क्षेत्र में लड़कियों और महिलाओं के प्रति दोयम दर्जे का नजरिया अपने नये रुपों में और आयामों में सामने आ रहा है। निश्चत रुप से इसके लिए कन्या भ्रुण हत्या को हमारे समाज और राजनीति के लिए एजेंड़ा बनाना होगा और इसके लिए जिम्मेदार कारकों का दृढ़ता के साथ सामना करना होगा। इस काम में अब ओर देरी नही की जा सकती है नही तो वो समय ज्यादा दूर नही जब हम ऐसे समाज में रह रहे होगें जहाॅ लड़कियाॅ लड़कों के अनुपात में आधी ही रह जायेगीं।