बस्तर में विश्व प्रसिद्ध दशहरा का रथ खींचने किलेपाल परगना के 34 गांवों में उत्साह तथा स्फूर्ति का माहौल रहता है। बस्तर दशहरा में रथ खींचने का अधिकार केवल किलेपाल के माडिय़ा लोगों को है। इनकी सामाजिक व्यवस्था इतनी मजबूत है कि उसकी अवहेलना करना किसी भी सदस्य के लिए संभव नहीं होता है।
रथ खींचने के लिए जाति का कोई बंधन नहीं है। माडिय़ा मुरिया, कलार हो या धाकड़ हर गांव से परिवार के एक सदस्य को रथ खींचने जगदलपुर आना पड़ता है। रथ खींचने न जाने पर गांव के मांझी मुखिया उस परिवार पर जुर्माना लगाते हैं, जो कि उस परिवार के आर्थिक स्थिति के अनुसार तय होता है। मूल भावना यह है कि सदियों की समृद्ध परंपरा और रस्मों रिवाज टूटने न पाये और युवा आधुनिक सभ्यता के फेर में पड़ कर इससे विमुख न हो जायें।
बस्तर दशहरा में किलेपाल परगना से दो से ढाई हजार ग्रामीण रथ खींचने पहुंचते हैं, इसके लिए पहले घर-घर से चांवल नगदी तथा रथ खींचने के लिए सियाड़ी के पेड़ से बनी रस्सी एकत्रित की जाती थी। राजशाही जमाने में मां दंतेश्वरी की डोली को बैलगाड़ी से दंतेवाड़ा से जगदलपुर के लिए निकाला जाता था तथा रास्ते के सभी गांव में इसकी पूजा होती थी। ग्रामीण मांई जी के पीछे अपने साजो सामान के साथ चलते थे। कोया कुटमा समाज के संरक्षक ने बताया कि प्रशासनिक व्यवस्था में इसका स्वरूप बदल गया है। मां दंतेश्वरी की डोली अब वाहन में दंतेवाड़ा से जगदलपुर तक का सफर तय करती है, वहीं किलेपाल से ग्रामीणों को लाने प्रशासन द्वारा 15 से 20 वाहनों को भेज दिया जाता है।
मांझी मेटा हिड़मा, ग्रामीण बक्सुराम के अनुसार रथ खींचने वाले ग्रामीण वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था से असंतुष्ट है। इस कार्य के लिए हर साल लाखों रूपए बजट के बावजूद जगदलपुर में उनके लिए ठहरने, प्रसाधन, पेयजल व खानपान की उचित व्यवस्था नहीं रहती, वहीं रथ खींचने के दौरान बाहरी व्यक्तियों द्वारा रस्सी खींचने का प्रयास किया जाता है, जिससे विघ्न उत्पन्न होता है और आस्था पर भी ठेस पहुंचती है। इस दौरान किसी ग्रामीण के घायल होने पर मुआवजा देने की बात तो कही जाती है, पर कोई निराकरण ग्रामीणों के पक्ष में नहीं होता है। इस कारण रथ खींचने के प्रति लोगों में रूचि कम होती जा रही है।