मध्यप्रदेश में 13 साल से भाजपा की सरकार और 11 साल से शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री हैैं। उनकी टीम में 80 फीसद से ज्यादा मंत्री 10 साल से बने हुये हैैं। राज्य में लगातार तीन बार सरकार बनाने का रिकार्ड कायम किया। जनता में पांव-पांव वाले भैया के नाम से लोकप्रिय। अलग बात है कि पिछले दिनों जैन संत शिरोमणि विद्यासागर जी महाराज के दर्शनों के लिये पैदल चलने पर उनके पैर में छाले पड़ गये थे। उनकी पार्टी में सत्ता पाने के लिये 13 साल से भटक रहे नेता, कार्यकर्ताओं के पैर में भी छाले पड़े हुये हैैं। इस सबके बीच मुख्यमंत्री और उनकी टीम समस्याएं सुलझाते सुलझाते इस कदर थक गयी हैैं कि उन पर यह पंक्तियां सटीक बैठती हैैं - किस-किस की फिक्र कीजिए और किस किस के लिए रोईये, आराम बड़ी चीज है मुंह ढंक कर सोईये। आमतौर से यह कहावत मुसीबतजदा लोग अपनी बेबसी का इजहार करने के लिये बातचीत में करते हैैं। लेकिन सरकार में बैठे लोग लगातार समस्याएं सुलझाते सुलझाते एक तरह से थक जाते हैैं क्योंकि सिर्फ चेहरे, नाम और क्षेत्र बदलते हैैं आम तौर से समस्याएं एक जैसी होती हैैं। मसलन बच्चों के लिये नौकरी, बीमार के लिये दवा, राजनीतिक कार्यकर्ता सत्ता और संगठन में पद मांगते हैैं। हर चीज के लेने - देने की सीमा है। इसलिये सियासत में परेशान लोग अब इसी मूड में हैैं कि आराम बड़ी चीज है मुंह ढंककर सोईए।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पद संभालने के साथ योजनाओं की ऐसी झड़ी लगाई थी कि गरीब, महिला, मजदूर, किसान, कन्याएं एक तरह सब उनके मुरीद हो गये थे लेकिन पिछले कुछ महीनों से कुपोषण, महिलाओं पर अत्याचार, किसानों की आत्महत्या, बदहाल सड़कों और निवेश के लिये दुनिया की खाक छानने के बाद भी नतीजे निराशाजनक आने से सत्ता के सियासी गलियारों में उदासी सी छाई हुई है। इससे अलग पार्टी में मुख्यमंत्री के खिलाफ हमले भी शुरू हो गये हैैं। राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय बेलगाम नौकरशाही को लेकर विपक्ष से ज्यादा सरकार पर निशाना साधने में लगे हैैं। संगठन महामंत्री रामलाल की नसीहत के बाद भी शिवराज और उनकी सरकार के खिलाफ भाजपा में नाराजगी कम नहीं हो रही है। प्रकाश मीरचंदानी से शुरू हुआ विरोध संस्कृति प्रकोष्ठ के प्रभारी रहे राजेश भदौरिया ने तो सीबीआई जांच के चलते ठंडे पड़े व्यापमं के मामले में सरकार को जनता से माफी मांगने की मांग कर डाली। अलग बात है कि उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। ग्वालियर में भाजपा की प्रदेश कार्यसमिति की बैठक के चलते विरोध के स्वर उठे तो राष्ट्रीय संगठन महामंत्री को हस्तक्षेप करना पड़ा। मगर वह भी नाकाफी साबित हुआ, क्योंकि उसके दूसरे ही दिन बालाघाट के बैहर में जिला प्रचारक सुरेश यादव के साथ पुलिस द्वारा की गई मारपीट पर दो विधायकों ने मंत्री गौरीशंकर बिसेन को जिम्मेदार मानते हुये इस्तीफा मांग लिया। एक तरह से यह मुख्यमंत्री पर हमला है। इसी तरह पूर्व मंत्री राजेंद्र प्रकाश सिंह और कुछ विधायकों ने सरकार के खिलाफ बगावत का बिगुल बजाया। पार्टी में संतोष और जनता की बेरुखी ने सरकार की चमक फीकी की है। इधर आंकड़ों में म.प्र. में महिला अत्याचार के मामले में नंबर एक पर आना, भ्रष्टाचार में नंबर दो पर आना और कुपोषण में चौथे नंबर पर। कर्ज लेने के लिए पिछले महीने ही चार हजार करोड़ का कर्ज लेने के लिए इक्विटी बेचनी पड़ी। जितना राज्य का बजट है कर्ज का आंकड़ा उसके नजदीक आ गया है। यह सब शिवराज सिंह की छवि को बिगाड़ता है।
किसान और शिक्षा भी बदहाल
दो महीने बाद धान और सोयाबीन बाजार में आने वाले हैैं। तीन साल से घाटे में जा रहे किसान के लिये यह साल निर्णायक है। अच्छे मौसम और जीतोड़ मेहनत ने धान और सोयाबीन की बंपर फसल आने के संकेत दिये हैैं। लेकिन लागत मूल्य भी नहीं मिला तो किसान फिर आत्महत्या की तरफ जायेगा। एक किसान पुत्र के लिये इससे बड़ा कलंक और क्या हो सकता है।
इसी तरह शिक्षा के भी बुरे हाल हैैं। सरकार ने स्कूल चलो अभियान तो चलाया, मगर स्कूलों में पढ़ाओ अभियान अभी तक नहीं चलाया है। इसके चलते नवंबर से विद्यार्थियों में डिप्रेशन आना शुरू हो जायेगा और दिसंबर तक बच्चे क्लास से भागेंगे और तब शासकीय शिक्षक कहेंगे कोर्स पूरा नहीं हुआ, समय बचा नहीं, हम क्या कर सकते हैैं। बहाना यह कि पढाने के अलावा उन्हें और भी कई बेगार करनी पड़ती है लेकिन विद्यार्थियों का तो भविष्य और साल दोनों बर्बाद हो जायेगा। अक्सर दिसंबर में स्कूलों में डिप्रेशन से बचाने के लिये काउंसलिंग और मनोचिकित्सकों की सलाह का दौर चलता है। अभी वक्त सिलेबस को पूरा करने का, लेकिन विभाग और सरकार दोनों मुंह ढंक कर सो रहे हैैं।
इसलिये तो कहते हैैं जनाब सियासत करना आसां नहीं है। सत्ता की सियासत तो और भी मुश्किल। वैसे भी यह काम हर किसे के बूते को नहीं होता इसके लिये जुनूनी, जिद्दी होना जरुरी है। झूठ को भी इस मासूमियत, नजाकत और नफासत से बोला जाता है कि जो ठगा जाता है उसका दिल भी बार बार ठगाने के लिये होता है। इसमें ठगने और ठगाने वाले दोनों एक-दूजे के लिये बने या एक दूसरो को हराने जिताने में लगे रहते हैैं। मोहब्बत और सियासत करने वालों को डराने में एक नाकामयाब शेर बहुत मशहूर हुआ - यह इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजिए, आग का दरिया है और डूब कर जाना है।
अभी तो सीन 2003 जैसा है तब मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह थे और वे दो चुनाव जीत चुके थे। दस साल की सत्ता का अनुभव साथ था। चुनावी प्रबंधन और कार्यकर्ताओं में उनकी पकड़ थी लेकिन खराब सड़कें, गायब बिजली और पानी के संकट ने उन्हें सत्ता से विदा कर दिया था। कमोबेश ऐसे ही हाल अब नजर आने लगे हैैं। पूरे प्रदेश में सड़कें बद से बदतर हैैं, बिजली सरप्लस में होने के बाद भी खेतों के लिये आठ-आठ घंटे ही मिल पा रही है। खुद मुख्यमंत्री के क्षेत्र में यही हाल है। ऐसा लगता है कि दुनिया गोल है और प्रदेश फिर वहीं खड़ा हो रहा है जहां से वह 2003 में चला था।
सत्ता के लिहाज से देखें तो लगातार 13 बरस से भाजपा की सरकार है और 11 साल से शिवराज सिंह मुख्यमंत्री। दोनों ही अपने आप में रिकार्ड हैैं। लगातार तीन चुनाव जीतना और लोकप्रिय बने रहना कठिन काम है। शिवराज पर भाजपा को चौथी बार सत्ता में लाने का भी दबाव आग के दरिया से गुजरने जैसा है। उनकी लोकप्रियता और कार्यकर्ताओं की उनके प्रति दीवनगी के घटते ग्र्राफ की खबरें भाजपा और सरकार के लिये बेचैनी पैदा करने वाली हैैं।
एक युग 12 साल का होता है और भाजपा तेरह साल से सरकार में है। ऐसे में हजारों कार्यकर्ता और नेता हैैं जो दहाड़े मार-मार कर कह रहे हैैं सत्ता का स्वाद हम कब चखेंगे। उन्हें लगता है चौथी बार सत्ता में नहीं आये तो हमारे इतने बरस की तपस्या गई काम से। पता नहीं फिर कब मौका मिले।
संक्षेप में यह कि जो लगातार लाल बत्ती का सुख उठा रहे हैैं कि वे इतने अफर गये हैैं कि सत्ता से उकताये हुये लगते हैैं मगर कांग्र्रेस के बिना किसी भाजपाई के लिये कुर्सी छोडऩे राजी नहीं। बहुत से चर्चा में कहते हैैं ज्यादा हुआ तो क्या होगा पार्टी चुनाव हार जायेगी और क्या, अगली बार मेहनत कर फिर सत्ता में आयेंगे। बस यही आशंका भाजपा और कांग्र्रेस में अभी से लट्ठ चलवा रही है। सत्ता से दूर भाजपाई सोचते हैैं कि रसमलाई खाने न सही चाटने तो मिले और कांग्र्रेस में नेतृत्व को लेकर संघर्ष वहां ऐसा मानना है जो अभी लीडर वही तो सीएम बनेगा। यह सोच दावेदार और उनके समर्थक अभी से फूले नहीं समा रहे हैैं। क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया, क्या कमलनाथ। विवाद की स्थिति में दिग्विजय सिंह की टीम भी हम भी हैैं ना की तर्ज पर तैयार है। सुरेश पचौरी इन सेरों के बीच पाव की तरह हैैं जिनके साथ होंगे वही तोलमोल के गणित में सवा सेर हो जायेगा। खैर यह तो भविष्य की बातें हैैं पता नहीं ऊंट किस करवट बैठेगा। बहरहाल पार्टी कोई भी हो नेताओं का काम तो आग के दरिया से गुजरने जैसा है जिसका उन्हें खासा तजुर्बा भी है।