धार्मिक सहिष्णुता और सभी धर्मों के प्रति समादर का भाव रखने वाली सदियों पुरानी रस्म का नाम है मावली परघाव। मावली देवी हैं और उनके स्वागत को परघाव कहते हैं। सोमवार की रात जगदलपुर शहर में देवी के स्वागत में लोगों का सैलाब उमड़ेगा। गीदम रोड स्थित जिया डेरा से नवमीं की शाम मांई की डोली रवाना होती है और सिंह ड्योढ़ी तक जगह-जगह लोग इसका स्वागत करते हैं। इस दौरान जमकर आतिशबाजी होती है और उत्साह का माहौल बन जाता है।
चालुक्य राजाओं की कुल देवी थीं मावली मां
दरअसल देवी मावली कर्नाटक राज्य के मलवल्य गांव की देवी हैं, जो छिंदक नागवंशीय राजाओं व्दारा उनके बस्तर के शासनकाल में आई थीं। छिंदक नागवंशीय राजाओं ने नौंवीं से चौदहवीं शताब्दी तक बस्तर में शासन किया। इसके बाद चालुक्य राजा अन्नमदेव ने जब बस्तर में अपना नया राज्य स्थापित किया, तब उन्होंने देवी मावली को भी अपनी कुलदेवी के रूप में मान्यता दी। मावली देवी का यथोचित सम्मान तथा स्वागत करने के लिए मावली परघाव रस्म शुरू की गई।
इतिहासकार बताते हैं कि अष्टमी के दिन दंतेवाड़ा से आई मावली देवी की डोली का स्वागत करने राजा, राजगुरु और पुजारी नंगे पांव राजमहल से कुटरु बाड़ा तक आते थे। उनकी अगवानी और पूजा-अर्चना के बाद देवी की डोली को कंधों पर उठाकर राजमहल स्थित देवी दंतेश्वरी के मंदिर में लाकर रखा जाता है। दशहरे के समापन पर इनकी ससम्मान विदाई होती है।
बस्तर दशहरा के विधानों में समय और परिस्थिति के अनुसार बदलाव होते रहे हैं। पहले बस्तर के तमाम देवी-देवता मावली देवी के स्वागत को जाते थे। आम जनता को उनकी डोली का स्पर्श और फूल अर्पित कर उनसे आशीर्वाद पाने की छूट थी। अब आम लोग तो क्या प्रमुख देवी-देवताओं की सवारी को भी स्वागत के लिए जाने में पुलिस की सख्ती झेलनी पड़ती है। बावजूद किसी तरह लोग अपनी इच्छा पूरी करके ही मानते हैं। इन सबके बीच हर साल यहां आने वाले विदेशी पर्यटकों के लिए यह सब अजूबे जैसा है और वे इस रस्म को निहारते थकते नहीं हैं।