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नई दिल्ली । भारत के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने कहा कि न्याय का सच्चा अर्थ, सबसे कमजोर व्यक्ति की रक्षा में है। कानून का शासन निष्पक्षता, गरिमा और समानता के साधन के रूप में कार्य करना चाहिए। अपना उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि उनका जीवन समानता की परिवर्तनकारी ताकत को दिखाता है। हाशिए पर पड़े समुदाय में जन्म लेने के बाद कैसे संवैधानिक सुरक्षा उपायों ने न केवल सुरक्षा बल्कि सम्मान, अवसर और मान्यता सुनिश्चित किए।
वियतनाम के हनोई में शनिवार को आयोजित ''ला एशिया'' सम्मेलन में “विविधता और समावेशन को बढ़ावा देने में वकीलों और अदालतों की भूमिका” विषयक सत्र को संबोधित करते हुए मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने न्यायिक व्यवस्था में विविधता और समावेश को बढ़ावा देने के लिए कड़े प्रयास का आह्वान किया। बार एंड बेंच में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने कहा कि "मेरे लिए, एक निम्न-जाति के परिवार में जन्मे होने का मतलब था कि मैं अछूत पैदा नहीं हुआ था। संविधान ने मेरी गरिमा को किसी भी दूसरे नागरिक के समान मानते हुए न केवल सुरक्षा बल्कि सम्मान, अवसर और मान्यता भी सुनिश्चित की है।"
मुख्य न्यायाधीश गवई ने अपने जीवन पर गौतम बुद्ध, महात्मा गांधी, बीआर अंबेडकर और अपने पिता आरएस गवई के प्रभावों को याद करते हुए कहा कि डॉ. अंबेडकर ने दिखाया कि कानून को पदानुक्रम के साधन से समानता के माध्यम में परिवर्तित किया जाना चाहिए और उनके पिता ने उनमें न्याय और करुणा के मूल्यों का संचार किया। उन्होंने कहा कि जब कानून गरिमा की रक्षा करता है तो यह किसी व्यक्ति के जीवन की दिशा बदल सकता है। उनके लिए विविधता और समावेशन का विचार अमूर्त स्वप्नलोक नहीं बल्कि यह लाखों नागरिकों की आकांक्षा है।
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